शनिवार, 11 अक्तूबर 2008

पी. एन. बी. कवि सम्मलेन, अक्टूबर 12, २००८ .

जब शाम को विजय का फ़ोन आया तो नींद में था( अपनी बॉडी-क्लोक जरा हिली हुई है!) . "7 बजे. पंजाब नेशनल बैंक स्टाफ कॉलेज सभागार, अंडर हिल रोड. सोचा के शायद तुम आना पसंद करोगे. और घर पर खाना के लिए मना कर देना. बाद में डिनर भी है यहाँ."
7:30 बजे पहुंचा. घुसते ही घोषणा हुआ की बैंक वालों की किसी प्रतियोगिता के पुरस्कार बंट चुके हैं और चाय-पान के बाद कवि-सम्मलेन शुरू होगा. 10 मिनट में. दाद मिली-"क्या टाइमिंग है!"
अब कविता हो रही हो और वो भी जहाँ अशोक चक्रधर आ रहे हों और ऊपर से आप बता दें के खाना यहीं है तो... खाने वाली बात ऐसे ही कह रहा हूँ... अशोक चक्रधर जी को कभी साक्षात नहीं सुना था. आप समझ ही सकते हैं.

अशोक जी तो खैर बाद में बोले. उनसे पहले कविता बोल के तोल गए- पवन दीक्षित, सुनील जोगी, कीर्ति काले और लक्ष्मी शंकर वाजपेयी. सच कहा की "आप सब को बधाई. इस कवि-सम्मलेन में कविता हो रही है."

पवन दीक्षित जी ने ग़ज़ल, कविता कहते हुए अपने जज्बातों भी पूरी उड़ान दी. मैं अपनी किस्मत को रोता रहूँगा की कैमरा साथ नहीं ले गया. इस मुल्क के सरपरस्तों का दिमाग है की-
लाख तबाही के मंज़र हों! उनको क्या
बस ऊपर से ऊपर-ऊपर देख लिया

और शायद मैंने लफ्ज़ छोड़ दिए हैं और जो लिखे हैं वो भी इधर-उधर-
मेरे ऐब को भी हुनर माने है
यार मेरे! तू भी तो खतरनाक है

सुनील जोगी जी ने कुछ छिट-पुट पटाखों के बाद मारक व्यंग्य और अंत में मातरि(वर्तनी ठीक नहीं बैठ रही है) शक्ति और बड़ों के सम्मान पर भी कहा. ये याद रहा -
भले नमक चाय में और
सब्जी में चीनी डालो
मेहमानों को भगाना सीखो
मंहगाई का मौसम है

राजेश राज जी ने शाम का, सभी अर्थों में खूब खाका खींचा-
पंछी लौट नीड़ में आयें, समझों शाम हुई
जब डर लगे भटक न जायें समझों शाम हुई

कीर्ति काले जी ने युवा वर्ग के बदलते सम्बन्धों पर छाई छद्म आधुनिकता और व्यावसायिकता पर व्यंग्य करने से पहले गाया -
ऐसा सम्बन्ध जिया हमने, जिसमें कोई अनुबंध नहीं
ऐसा लिखा नवगीत के जिसमें पूर्व-नियोजित छंद नहीं

लक्ष्मी शंकर वाजपेयी जी मन में काफ़ी वक़्त से कुल्मुलाती सोच को अभिव्यक्ति दें गए-
दफ़्तर से घर आ गए दोनों ही थक हार
पत्नी ढूंढें केतली और पति अखबार

कितने सरल शब्दों में बदलते युग, पर नारी के प्रति न बदलते दृष्टिकोण को उकेरा हैं वाजपेयी जी ने.

अंत में बोले चक्रधर जी! बोल गए कुछ मीडिया पे, कुछ साम्प्रदायिकता पे, कुछ भाषा पे और चढ़ा गए रंग बेरंग आशा पे. चुनावों के मौसम पर अपनी लोकप्रिय जंगल-गाथा जो बाल सुलभ उत्साह से सुनाई, तो कसम अल्ला-गनेस की, दिल गार्डन-गार्डन हो गया-

एक नन्हा मेमना और उसकी माँ बकरी,
जा रहे थे जंगल में राह थी संकरी
अचानक सामने से आ गया एक शेर¸
लेकिन अब तो हो चुकी थी बहुत देर.
भागने का नहीं था कोई भी रास्ता¸
बकरी और मेमने की हालत खस्ता.
उधर शेर के कदम धरती नापें¸
इधर ये दोनों थर–थर कापें.
अब तो शेर आ गया एकदम सामने¸
बकरी लगी जैसे –तैसे बच्चे को थामने.
डरते हुए बोला बकरी का बच्चा,
शेर अंकल, क्या खा जाओगे हमें एकदम कच्चा.
शेर मुस्कराया¸
उसने अपना भरी पंजा मेमने के सर पर फिराया
बोला, हे बकरी– कुल गौरव¸
आयुष मान भव
आशीष देता ये पशु –पुंगव–शेर¸
की अब न होगा कोई अंधेर.
उछलो, कूदो, नाचो और जियो हंसते–हंसते ,
अच्छा बकरी मैया नमस्ते.
इतना कहकर शेर कर गया प्रस्थान¸
इधर बकरी हैरान.
भला ये शेर किसपर रहम खाने वाला है ,
लगता है जंगल में चुनाव आने वाला है.
(यह जंगल-गाथा पूर्ण नहीं है)

सम्मेलन के बाद भोजन. भोजन किया छक के. फ़िर निकले ऑटो की तलाश में. बात चली. हम चलते रहे. सोना तपे आग में, मैं और विजय बातों में तपते रहे. बात चली इसकी उसकी, मीडिया की, इंडिया की. चलते-चलते आ गए घर मेरे. ऑटो न कोई रुके. हम बात करने में क्यों झुकें. फ़िर व्यवस्था, आपराधिक तटस्था पर हुई. जब साढ़े ग्यारह पर रुकी सुईं, एक ऑटो वाले से बहस हुई. थोड़ा मनाया, थोड़ा हड़काया. विजय को किया विदा. फिर मिलेंगे जल्दी. यार तुमने तो मेरी रात ही बदल दी! इस बेहतरीन रात की याद में छाप रहा हूँ, अपना एक पुराना गीत. हार-हार के भी यहाँ देख गया मैं जीत-

धूप चुरा कर लाया हूँ
मैं धूप चुरा कर लाया हूँ
उस तम को हरने वाले का
स्वरुप चुरा कर लाया हूँ

जैसे रात का ठंडापन
सम्बन्धों में आ जाता है
स्नेह-प्रेम को गौण करे
ख़ुद सब पर छा जाता है
सर्द हुए इन पाशों को
दहकाने मैं आया हूँ

धूप चुरा कर लाया हूँ...

रजनी जल सा अश्रु जल
जब हृदय पर छा जाता है
ना वापिस अब जाऊँगा
दुस्साहस दिखला जाता है
आंखों की भूली इस निधि को
लौटाने मैं आया हूँ

धूप चुरा कर लाया हूँ...

ढलते ही दिन के जैसे
विहग नीड़ को जाते हैं
गीत उनके बागों के
बागों में ही खो जाते हैं
चिर-बिसरे उन गीतों को
दोहराने में आया हूँ

धूप चुरा कर लाया हूँ...

कली एक छोटी थी जो खिली
फूल नही बन पायी थी
अपना पूरा यौवन जो अभी
मधुकर को न दें पायी थी
शैशव के कैनवस में भरने
रंग बसंती लाया हूँ

धूप चुरा कर लाया हूँ...

तारों की छाओं में जैसे
पलके अलसा जाती हैं
और नहीं अब और नहीं
कर्महीन कर जाती हैं
काज तजे इन हाथों में
भाग्य सौंपनें आया हूँ

धूप चुरा कर लाया हूँ...

चाँद अमावस में जैसे
दूर कहीं छिप जाता है
महा-तिमिर सागर में मन
बैठा-बैठा जाता है
पथ से भटके उन पथिकों को
आस बंधाने आया हूँ

धूप चुरा कर लाया हूँ
मैं धूप चुरा कर लाया हूँ
उस तम को हरने वाले का
स्वरुप चुरा कर लाया हूँ

शुक्रवार, 10 अक्तूबर 2008

अंग्रेज़ी...

अंग्रेज़ी वाली डाल रहें हैं! अब कौन चिरकुट अंग्रेज़ी के सुस्त पड़े ब्लॉग पर जाके unwarranted चुस्ती दिखाएगा।

Empty bottles
hasty drunk

The swirling
flying bed
the throbbing head
and no one around
I remember last December
and yes
puking all night

Then it was still swirling
but a friend's lap
which could get
soaked
in the continuous
puking all night

And it was still swirling
my hands on their shoulders
my weight (under one ton)
pulling them down
and still they were laughing
putting me to bed
assuring -
it's all right
puking all night.