बुधवार, 30 सितंबर 2009

अथ श्री पीएचडी कथा! और क्या वाकई सबसे बड़ा रुपय्या!



आजकल, अपनी प्रसन्नता के बारे में आप क्या कहना चाहेंगे?
१) बहुत खुश
२) सामान्यत: खुश
३) नाखुश

या फिर १ से १० के स्केल पर आप अपनी प्रसन्नता को कितने अंक देना चाहेंगे?

कुछ इसी तरह के सवाल पूछे जाते हैं subjective well being measure सर्वे में. मेरी भावी रीसर्च कुछ इसी तरह का रुख लेने वाली है. थोडा अर्थशास्त्रीय पहलू ये होगा की में वैश्वीकरण का प्रभाव लोगों की प्रसन्नता पर देखना चाहूंगा. Econometrics, जिसे data विश्लेषण का विज्ञान कहा जा सकता है, का इस्तेमाल भी किया जाएगा. जर्मनी से प्रोफ़ेसर एक्सेल द्रेहेर ने पीएचडी में मेरा सुपर्वाइज़र बनने के लिए हामी भरी है. अभी तो छात्रवृति के पापड भी बेलने हैं. अक्टूबर १३ को GRE की परीक्षा भी देनी है. थोडा समय मिलते ही अपनी रिसर्च की दिशा के बारे में और लिखूंगा. तब तक अमर्त्य सेन और जोसेफ स्तिग्लित्ज़ की इस रिपोर्ट को देखा जा सकता है जो फ्रांसीसी राष्ट्रपति सार्कोजी के आग्रह पर उन्होंने लिखी है.बड़े लोग कहते हैं के "और भी राहतें हैं पैसे की खनक के सिवा"

मंगलवार, 14 जुलाई 2009

सस्ती मौत गरीब की

पहली


(फ़ोटो http://news.in.msn.com/national/article.aspx?cp-documentid=३०७०९९६ से साभार.)

"जेब में पैसे हैं नहीं दारु पियेंगे. और वो भी जब बेन किया हुआ है वहां. और पी लो छुप-छुप के कच्ची सस्ती देसी दारू. 10 रूपए में अच्छी दारु की बूँद भी ना मिले."
"यार वो महंगी अफ्फोर्ड नहीं कर सकते थे."
"अबे तो ये साले अमीरों वालें शौक क्यूँ पालते हैं. इतने का दूध पी लो! सेहत भी बनेगी! "
"जैसे के बियर की जगह तू पी लेता है."
"यार हम लोगों की बात अलग है. इन सब चीज़ों में निगरानी की बड़ी दरकार होती है. मैंने एक बार मजे-मजे में कच्ची ट्राई करने की सोची थी. अब कान पकड़ता हूँ. मगर ये गरीब आई टेल यू!दे आर सो डम्ब! मर गये न थोक में!"


दूसरी


(फ़ोटो http://www.bbc.co.uk/worldservice/assets/images/2009/07/12/090712071647_1metro_466.jpg से साभार)

"क्या इस वर्ल्डक्लास प्रोजेक्ट के पूरा होने में कुछ वर्ल्डक्लास संवेदनशीलता नहीं दिखाई जानी चाहिए."
"दिखाई तो थी यार. फिर मरने वालों और घायलों को पैसा भी दिया जाएगा."
" इतना काफी नहीं है. किसी की तो आपराधिक नज़रंदाजी है. आरोप तय होने चाहिए."
"अबे मजदूरों के लिए इत्ता हो गया, यही काफी है. और क्या जान लेगा सरकार की/समाज की/अपनी/मेरी!

मंगलवार, 7 जुलाई 2009

इन्द्रधनुषी ज़िन्दगी

एक मुट्ठी ज़िन्दगी
आसमां में उछाल दी...



मिला
इन्द्रधनुष!

रविवार, 28 जून 2009

बिजनौर - रात के तीन चित्र.

भीड़ लगी होती है साब! पीछे चार कुर्सी डाल कर बैठने का भी इंतेज़ाम है. एक बार इडली खा ली थी. पता चला की बिजनौर कुछ ज्यादा ही दूर है मद्रास से!



"दिलजला टाईम्स"- न जाने कितनों के दिल जला पाता होगा!



"यू. पी. हुई हमारी है/ अब दिल्ली की बारी हैं"

गुरुवार, 18 जून 2009

जगह मिलने पर साइड दी जायेगी

१) गाड़ी के पीछे-
सपने मत देख, सामने देख!

२) बस के किनारे-
लटक मत, टपक जाएगा!




3) धर्मेन्द्र अपना चिम्पांजी/जट्ट यमला टाइप नृत्य करते हुए, डिम्पल से-

थोडी सी तुम पीना
थोडी मुझे पिलाना
बाकी सारा ज़माना
खस्मा नूं खाना ||

आखिरी सद्विचार, "मयखाना" की बढती लोकप्रियता को समर्पित.

बुधवार, 17 जून 2009

बुरी नज़र वाले

१) बुरी नज़र वाले... तेरा मुंह काला
२) बुरी नज़र वाले... तेरा भी भला हो
३) बुरी नज़र वाले... कमा के खाले
४) बुरी नज़र वाले, तेरा... चल छोड़ यार!

सोमवार, 4 मई 2009

ऋषिकेश

तो साहिब जब हम चण्डी मंदिर पहुंचे तो मुनीश भाई से हुई एक दिन पहले की बात दिमाग में कौंधी और मैंने अपने बड़े भाई को कह दिया की "भाई गाडी धीमी कर लो. यहाँ से पूछना है की ऋषिकेश के लिए राजाजी नेशनल पार्क वाला रास्ता कहाँ से लेना है."
आगे देखा की पहाड़ पर से पत्थर गिर रहे थे(छोटे ही सही) और थोडा गर्दो-गुबार टाइप माहौल हो गया था-



जैसा की गुरु घुमक्कड़ ने कह दिया था की नहर के साथ चलो तो "सुहाना सफ़र और ये मौसम हसीं" टाइप का समां हो जायेगा होगा. तो हमने वो किया मगर उससे पहले 100 रूपए नेशनल पार्क वालों ने सूत लिए. "उन्हें भी अपने हाथी पालने है."


मन बन चुका था की पानी पर राफ्टिंग जरूर होगी. शिवपुरी से ऋषिकेश-













फिर निकले सहस्र धारा के लिए, पहुंचे लच्छी वाला-


पानी के पंख... मुनीश भाई को एक बार फिर धन्यवाद!

सोमवार, 13 अप्रैल 2009

वयस्कों के लिए

मैं: और बेटे मौज चल रही है...

दोस्त: हा यार, वही काम वगैरह!

मैं: काम का तो पता नहीं मगर तुम्हारे "वगैरह" के चर्चे हर जुबान पर है...

दोस्त: हा हा हा...

मैं: हा हा हा...

दोस्त: बड़ा कमीना है तू यार...

मैं: बड़े तो आप हैं सर. मैं तो... और बता वो जो मंटो की किताब खरीदवाई थी, पढ़ी?

दोस्त: नहीं यार टाइम कहाँ मिल पा रहा है...

मैं: उसमे एक "ऊपर, नीचे और दरमियाँ" ...

दोस्त: कभी कभी लगता है की आई नीड सम स्पेस

मैं: क्या बात कर रहा है!
(मैं फोन पर मुस्करा रहा था, मगर दोस्त को कमीनेपन की गहरी समझ है)

दोस्त: मज़ाक नहीं कर रहा यार. इट्स आलमोस्ट लिव इन... शुक्रवार को साथ ही आ जाती है ऑफिस से, और पूरा वीकएंड साथ ही... अकेले होते ही उसका हाथ पेंट की ज़िप पर चला जाता है.., राशिद (दोस्त का फ्लैटमेट) कहता है की जब तक मेरे कमरे का दरवाजा बंद नहीं होता उसे नींद नहीं आती...

मैं: सही जोड़ी बनी है भाई ठरकी को ठरकी मिली... या फिर ठर्कन... राइम्स विद धड़कन...हा हा हा... सही है गुरु!

दोस्त: यार कभी कभी मूड खराब कर देती है... मगर मैंने साफ़ कर दिया है की मैं इस रिलेशनशिप को लेकर बिलकुल सीरियस नहीं हूँ.

मैं: यार थोड़ा सा तो दिल मैं कुछ जरूर होगा... मतलब थोड़ा सा... थोड़ा सा...

दोस्त: यार, आई कांट अलाऊ माईसेल्फ तो गेट सीरियस... कोई मुकम्मल मुस्तकबिल नहीं इस रिश्ते का...

मैं: भाई रुक जा. मैं ज़रा मद्दाह की डिकशनरी उठा लाऊं.

दोस्त: यार तू ऐसी बाते करेगा तो हम जैसे अनपढों का क्या होगा...

मैं: ले ले मजे यार... ये छोडिये आप रिश्ते के फलसफे पर रोशनी डाल रहे थे...

दोस्त: यार कुछ प्रोस्पेक्ट नहीं इस लड़की का... २ लाख का पैकेज है साल का और जो प्रोफाइल है उसमें करियर प्रोग्रेस है ही नहीं...

मैं: कह दे के ये झूठ है! मेरा दोस्त इतना अनरोमेंटिक नहीं हो सकता! प्यार मैं पैसा कहाँ से आ गया.

दोस्त: मेरे भी कुछ सपने है हैं यार!

मैं: हाँ बेटे! एंजेलिना जोली मिलेगी तुझे! रिच एंड ब्यूटीफुल...

दोस्त: क्यों नहीं मिल सकती बे!
मैं यहाँ थोड़ा झेंप गया हूँ. मुझे किसी की भावनाओं का मज़ाक नहीं उडाना चाहिए)

मैं: हां यार क्यों नहीं मिल सकती.

दोस्त: वो दूसरी बात है की वो कुछ ज्यादा ही घिसी हुई लगती है. नोट द वन विच केन बी टेकन होम टू मीट पेरेंट्स.

मैं: आपका मोनिका बलूची के बारे मैं क्या ख्याल है. क्लासिक ब्यूटी. अभी हाल ही में उसे...
दोस्त: हाँ हाँ... बेस्ट लिप्स... इन्तहाई खूबसूरत और मेरे सपने में निरंतर आने वाली मोनिका का नित्य प्रायः स्मरण करता हूँ.(हम दोनों ठहाका मार के हंसते हैं) और उस में वो बात है की आराम से मां के सामने ले जाया जा सकता है...

मैं:मगर यार इस लड़की के साथ रिश्ते में शरीर के अलावा कुछ तो होगा...

दोस्त: वो तो लाजिमी है. पत्थर साथ हो तो उससे भी लगाव हो जाता है. वैसे मुझे उस की गोद में लेटना बहुत पसंद है. और क्या मसाज करती है वो सर की... मगर नहीं यार... वो समझती है... कल कह रही थी की शी इज़ हैप्पी टु बी ओनली फिजिकल विद मी

मैं: ह्म्म्म
दोस्त: ह्म्म्म

शुक्रवार, 10 अप्रैल 2009

अंडें-1

सौरभ को गाँव कभी पसंद नहीं आता. छुट्टियों में गाँव आना तो और भी बोरिंग है. कुछ है भी यहाँ करने को. शहर में पूरे दिन बिजली आती है. जब मन चाहे टीवी देखो जब मन चाहे कॉमिक्स या कहानियों की किताब पढो. थोडा बहुत क्रिकेट और बाकी समय में दोस्तों के साथ मोनोपोली या डबल्यू . डबल्यू. एफ़. के प्लेयिंग कार्ड्स. छुट्टियों का होमवर्क भी करने का वक़्त मिल जाता है. दिन आराम से गुजरता है. और यहाँ, इस गाँव में तो लगता है बस मच्छर-मक्खी ही खुश रह सकते हैं. वहीँ तो हैं हर तरफ़. न बैठने दें न सोने दें. खाना खाते वक़्त मम्मी पंखा न झलें और अगर रात को मच्छर दानी न लगे तो सौरभ दो दिन में ही बीमार हो जाए. वैसे बीमार होना बुरा भी नहीं है! इस वजह से शहर लौटा जा सकता है!

"बड़े भैया की मौज है! ताऊ जी का लड़का जो उनका हमउम्र है. दोनों पूरे दिन झोट्टा-बुग्गी ( भैंसे को बग्गी में जोड़ कर बनाई गई. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में प्रचलित) को दौड़ाते फिरते हैं. बड़े भैया तो उसे भगाने के लिए कैसी कैसी गाली देते हैं! पापा के आते ही उनकी शिकायत करूंगा. कभी झोट्टे को इतनी तेज़ सांटा (लकड़ी पर लपेटा गया चमडे का चाबुक) मारते हैं और कभी उस के पेट के नीचे लात. बेचारा झोट्टा! उसे दर्द नहीं होता होगा क्या!"

अपने हमउम्र किसी बच्चे से सौरभ की जान-पहचान नहीं है. दादा जी कहते हैं, "पूरे गाँव में ब्राहमणों के गिने चुने घर हैं, और उस में भी हमारी बोंत (आर्थिक स्तर) वाला कोई नहीं हैं. गंदे-संदे लत्ते(कपड़े) और उस से भी गन्दी आदतों वाले बच्चे. और खेलेगा भी क्या! कंचे, गुल्ली-डंडा? पापा मना करते हैं न इन खेलों के लिए. पढ़े लिखे शहरी लाट साहेब क्या ऐसे खेल खेलते हैं. तू घर में ही भाईओं-बहनों के साथ खेला कर."

पापा आयेंगे तो सौरभ अकेले पूरे दिन उनके साथ क्रिकेट खेलेगा.

आज पापा आयेंगे. सौरभ सुबह से ही खुश है. उस ने खुद ही बड़े भैय्या और ताऊ जी के लडके से कहा है की उसे भी खेत पर जाना है. उस पापा को बताना है की उसने गाँव में क्या-क्या देखा और फिर उनसे सवाल भी पूछने हैं. दोनों बड़े भाई उसे टालना चाहते हैं, "बेमतलब में में हमारे कामों में अड़ंगे करेगा." मगर सौरभ को जाना है तो जाना है.

शनिवार, 21 फ़रवरी 2009

बसंत

ये जो मौसम है
जिसे मेरे गाँव में बसंत ही कहते है शायद!
(जनवरी के बीच से शुरू होता हुआ,
फरवरी के आख़िर तक तो अभी है
शायद मार्च बीतते बीत ही जाएगा.)
जिसमें सर्दी को प्यार से विदा कर रही होती है गर्मी
फूल खिला के
कहती हुई के देखो! सामने खुला मैदान है
भागो!
कोशिश करो!
इस
पेडों से मिल कर और शरारती हुई
हवा को रोक कर कुछ बात करने की
मौज में है ये
पर किस्मत आजमाने में हर्ज नहीं!

गुरुवार, 19 फ़रवरी 2009

किस्सा कस्बा कोटरा का

बिजनौर जिले के नगीना तहसील में एक गाँव है- क़स्बा कोटरा. कानूनन प्रधान महिला होनी चाहिए. है भी. लेकिन हुजूर प्रधानपति भी तो हैं.

गुरु लोग कहते हैं की कानून और व्यवहार के बीच का अन्तर सामाजिक सरंचना तय करती हैं. ये पश्चिमी उत्तरप्रदेश है जहां ना जाने कितने अल्ट्रासाउंड क्लिनिक बच्चिओं की जीवन यात्रा शोर्ट सर्किट कर देते हैं. सौ बातों की एक बात, महिलाएं घर/बच्चे संभालेगी या प्रधानी करेंगीं! भाई साहब आप इतना पढ़ लिख कर भी रहे बेवकूफ़ ही!

क़स्बा कोटरा - 500 घरों में 50-60 घर सैनियों के और गिन के पाँच घर जाटों के.
लगभग आधी आबादी मुसलमानों की और आधी चमारों की.

"हरिजन?
हरि के जन तो सभी हैं साहिब. मगर जात से हम चमार हैं. वही लिखो. "

रविवार, 15 फ़रवरी 2009

ब से...

क)बिजनौर
पिरमोद! पिरधान तुझे बुला रिया है.
ख) बागपत
परमोद! तुझे परधान बुला रा.

शुक्रवार, 6 फ़रवरी 2009

चोखेर बाली की आज की गोष्टी "नए विमर्श माध्यम और स्त्री-प्रश्न" से मैंने क्या लिया-
१) विकास (और उत्तर विकास) के परिप्रेक्ष में नारी की बदलती स्थिति पर सोचने की जरूरत है. निश्चित ही इसके लिए ऐतिहासिक कारणों में भी जाना होगा.
२) साहित्य/भाषा में इस प्रश्न से कैसे जूझा गया है?

किताबें-१

जो किताबें याद हैं की किसी को दी जा चुकी हैं और शायद वापिस न आयें-

१) महात्मा गांधी की आत्मकथा
२) सूरज का सातवा घोड़ा -भारती
३) फादर्स एंड सन्ज़ - तुर्गेनेव

गुरुवार, 5 फ़रवरी 2009

स्त्री-प्रश्न, भाग-१

स्त्री-प्रश्न -
१) समाज में ऐसा कुछ अन्तर्निहित है जो स्त्री-पुरूष में भेदभाव करता है. ये अन्तर लंबे समय से उपस्थित है और संस्थागत/व्यवस्थागत हो चुकने के कारण भविष्य में भी बना रह सकता है. इस अन्तर को समझना, मुख्यत: उस रूप में जिसमे नारी एक दोयम दर्जे का नागरिक जीवन जीती है, अत्यावश्यक है. बदलते सामजिक/आर्थिक/राजनीतिक परिवेश में इसे समझना एक स्थूल दिशा निर्देश है.
२) किसी भी मुद्दे की तरह, स्त्री-प्रश्न को सोचने समझने में कुछ ज़ाहिर बातें आड़े आ सकती हैं और हमारे दृष्टिकोण को प्रभावित कर सकती हैं. ये देखना दिलचस्प होगा की इन लैंगिक, सामजिक, आर्थिक, राष्ट्रीय आदि मोडों से होते हुए स्त्री-प्रश्न पर तार्किक रूप से कैसे सोचा जा सकता है.

चर्चा जारी रहेगी...

बुधवार, 4 फ़रवरी 2009

रिक्शा-रिसर्चा-चर्चा भाग-१

आज आखिर अपने निक्कमेपन को गाली देते हुए, नाश्ता ख़ुद लाने की सोची और बड़े भाई से मोटर साइकिल की चाबी मांग ली! कार और बाइक में लॉजिक तो एक ही काम करता है!

"वैसे तो तू चला ही लेता है. मगर जब तक किसी चीज़ को बार-बार इस्तेमाल ही नही करेगा तो आउट ऑफ़ टच हो ही जाएगा. ये ले मेरा लाईसेन्स और बाइक की आर. सी. वैसे भी लाइसेंस की फोटो से कुछ पता नहीं चलता. मगर ध्यान रखियो. किसी को ठोक मत दियो."

"अबे रेस तो दे थोडी. गेयर डाल के खडा हो गया. ले फ़िर बंद हो गई! भाई तेरा तो भगवान् ही मालिक है!"

और सच में भगवान् ही मालिक था हुज़ूर. पिछले कुछ दिनों से कार चलाना सीख रहा हूँ. होते तो दोनों में ही कलच, ब्रेक और अक्सलेरटर हैं, मगर अलग अलग जगह!
विश्वविद्यालय मेट्रो-स्टेशन घर से १०० मीटर की दूरी पर है. यहाँ बीस रिक्शा उस जगह खड़े होते है, जहाँ बस को रुकना चाहिए. इसी जगह एक रिक्शा वाले ने सवारी बिठा के रिक्शा मोड़ी. मैं उस समय कलच, ब्रेक, एक्सीलेटर पर गंभीर चिंतन करता हुआ सड़क के कुछ ज्यादा ही बाएँ आ गया था और जब तक ब्रेक लगाता बाईक रिक्शा के अगले पहिएं को चूम चुकी थी. मैंने, ख़ुद को सड़क पर घिसटते हुए महसूस किया. हेलमेट ढंग से बाँधा था और पीछे से ट्रैफिक नहीं आ रहा था सो कल के अखबारों की रियल पेज थ्री ख़बर बनने से रह गया. पीछे से बड़े भाई, जो की कैंडी को घुमाने निकले थे, भागते हुए आए. तब तक मेरा ये वहम की मेरी पसलियां टूट चुकी हैं उड़ चुका था. मगर ये जरूर लग रहा था की जांघ शायद थोडी छिल गई है.

लोग इक्कठे तो हो ही गए थे. कुछ ने रिक्शा वालों की पूरी कॉम को हो गाली दी. कालोनी के एक लडके ने सम्बंधित रिक्शा वाले को पकड़ के थाने में बंद करने का प्रस्ताव दिया.

भाई ने बाईक संभाली और मुझे-तो-पहले-से-पता-था वाली नज़रों से देखते हुए कैंडी का पट्टा थमा दिया.
"थोड़ा घुमा के घर ले जा."
और वो नाश्ता लेने चला गया.

वापिस आते आते मैंने देखा की वो रिक्शा वाला रिक्शा को ठेलते हुए, क्योंकि अगला पहियाँ क्षतिग्रस्त हो गया था, ले जा रहा था. किसी मेकेनिक के पास ही ले जा रहा होगा. मुझे ख्याल आया की इस की आज की कमाई तो अब क्या होगी बल्कि पहियाँ ठीक कराने में पैसे और लगेंगे. मैंने यूँ ही बड़प्पन में आकर उससे कहा " यार थोड़ा आगे पीछे देख कर मोड़ा करो".

"साहिब! मै तो संभाल के ही मोड़ रहा था. आप ही न जाने कहाँ से आ गये."

कहानी ख़त्म! पैसा हजम!

अब थोड़ा चिंतन-
१) दिल्ली में रिक्शा हैं और बहुत हैं.
२) रिक्शा में आप १० रुपये में १-२ किलोमीटर का सफर तय कर सकते हैं. औटो-रिक्शा वाला १० रुपए के लिए आपको नहीं बिठाता.
३) दिल्ली की कुछ संकरी गलियों के लिए ये रिक्शा ही मुफीद हैं.
४) रिक्शा से प्रदुषण नहीं होता.
५) रिक्शा चालक गरीब/बहुत गरीब हैं और, मेरी तथा शायद आपकी तरह भी, दिल्ली के जन्मजात बाशिंदे नहीं हैं.
६) दिल्ली मेट्रो के स्टेशनों पर रिक्शा बहुतायत में हैं. मेट्रो की फीडर बसों के बावजूद ये मेट्रो को महत्त्वपूर्ण तरीके से फीड कर रहे हैं.

जारी रहेगी...

मंगलवार, 3 फ़रवरी 2009

फरवरी ३, २००९

Degrees Without Freedom? पढ़नी पड़ रही है! दरअसल शोध बिजनौर से बड़े शहरों में श्रम प्रवासन (labor migration) पर आधारित है. आजकल सर्वे-प्रश्नावली पर चर्चा चल रही है. डॉ. वेगेर्ड इवेर्सेन (प्रोजेक्ट के सर्वेसर्वा) के अनुसार, बिजनौर को समझने में ये किताब काफ़ी लाभकारी सिद्ध होगी. मैं अभी पहला अध्याय भी पूरा नही पढ़ पाया हूँ, मगर किताब की शुरुआत बड़ी धमाकेदार और दमदार है. उम्मीद है आने वाले समय में इसकी और चर्चा कर सकूंगा.

आज ये भी तय हुआ की इस रविवार को हम बिजनौर के लिए निकल रहे हैं, और शायद अगले १० दिन वहां आंकड़े इक्कठे करने में बीतेंगे. फ़िर ३-४ दिन का दिल्ली प्रवास. अगले दो महीनों यही कार्यक्रम चलेगा.

एम. फिल. के बारे में अभी भी बहुत सोचना है. कल!

राहुल ने कहा था की १०-१४ के बीच में आएगा. उससे बात करनी होगी. पुणे में उसके साथ खूब छनी थी!

शुक्रवार और शनिवार छुट्टी है (बिजनौर जाने से पहले का सुख).

आर.अनुराधा जी अशोक भाई को बता रही थी की चोखेर-बाली को लेकर कुछ कार्यक्रम शुक्रवार को कला-संकाय में है. क्या है, कब है, कहाँ है? दुबारा पूछना पड़ेगा.

सोमवार, 2 फ़रवरी 2009

गरीबी-विमर्श-१

मौसम के थोड़ा
उपर नीचे होने पर
१० मिनट बात कर सकने वाला मैं
शीतलहर और लू से मरने वालों
(वो जहाँ कहीं भी हैं)
पर कहाँ सोच पाता हूँ!

गुरुवार, 29 जनवरी 2009

अगर अभी गया...

वो आदमी
जिसके पास
औसत से ज्यादा शब्द
कम समझदारी
हर दम चोट खाने का भय था
और
जो इस भय की प्रतिक्रिया
तीसरी और चौथी पंक्ति को मिला कर
कर दिया करता था!
कहना
आया था, चला गया!

दूसरी नौकरी की ओर...

पहली नौकरी ने मुझे क्या दिया!
ढेर सारा आत्म-विश्वास
बाज़ार में भूखा नहीं मरूँगा
एक नामी मालिक का टैग
ऊँची कीमत पर कैश किया जा सकता है
ढाई हज़ार की लिवाइस की जींस
पाँच हज़ार का वुडलेंड का जूता
इतना नर्म के अपनी ही खाल लगता है
गोवा की छुट्ठियां
माँ-बाप का भरोसा, यारों में इज्ज़त
आराम का काम
अब कह रहा है-
सफर में रुकने के दिन ये नहीं हैं
और सुनों
गर्द, पसीना जब चीकट बन जाए
प्यार से ख़ुद को धोना