शनिवार, 21 फ़रवरी 2009

बसंत

ये जो मौसम है
जिसे मेरे गाँव में बसंत ही कहते है शायद!
(जनवरी के बीच से शुरू होता हुआ,
फरवरी के आख़िर तक तो अभी है
शायद मार्च बीतते बीत ही जाएगा.)
जिसमें सर्दी को प्यार से विदा कर रही होती है गर्मी
फूल खिला के
कहती हुई के देखो! सामने खुला मैदान है
भागो!
कोशिश करो!
इस
पेडों से मिल कर और शरारती हुई
हवा को रोक कर कुछ बात करने की
मौज में है ये
पर किस्मत आजमाने में हर्ज नहीं!

गुरुवार, 19 फ़रवरी 2009

किस्सा कस्बा कोटरा का

बिजनौर जिले के नगीना तहसील में एक गाँव है- क़स्बा कोटरा. कानूनन प्रधान महिला होनी चाहिए. है भी. लेकिन हुजूर प्रधानपति भी तो हैं.

गुरु लोग कहते हैं की कानून और व्यवहार के बीच का अन्तर सामाजिक सरंचना तय करती हैं. ये पश्चिमी उत्तरप्रदेश है जहां ना जाने कितने अल्ट्रासाउंड क्लिनिक बच्चिओं की जीवन यात्रा शोर्ट सर्किट कर देते हैं. सौ बातों की एक बात, महिलाएं घर/बच्चे संभालेगी या प्रधानी करेंगीं! भाई साहब आप इतना पढ़ लिख कर भी रहे बेवकूफ़ ही!

क़स्बा कोटरा - 500 घरों में 50-60 घर सैनियों के और गिन के पाँच घर जाटों के.
लगभग आधी आबादी मुसलमानों की और आधी चमारों की.

"हरिजन?
हरि के जन तो सभी हैं साहिब. मगर जात से हम चमार हैं. वही लिखो. "

रविवार, 15 फ़रवरी 2009

ब से...

क)बिजनौर
पिरमोद! पिरधान तुझे बुला रिया है.
ख) बागपत
परमोद! तुझे परधान बुला रा.

शुक्रवार, 6 फ़रवरी 2009

चोखेर बाली की आज की गोष्टी "नए विमर्श माध्यम और स्त्री-प्रश्न" से मैंने क्या लिया-
१) विकास (और उत्तर विकास) के परिप्रेक्ष में नारी की बदलती स्थिति पर सोचने की जरूरत है. निश्चित ही इसके लिए ऐतिहासिक कारणों में भी जाना होगा.
२) साहित्य/भाषा में इस प्रश्न से कैसे जूझा गया है?

किताबें-१

जो किताबें याद हैं की किसी को दी जा चुकी हैं और शायद वापिस न आयें-

१) महात्मा गांधी की आत्मकथा
२) सूरज का सातवा घोड़ा -भारती
३) फादर्स एंड सन्ज़ - तुर्गेनेव

गुरुवार, 5 फ़रवरी 2009

स्त्री-प्रश्न, भाग-१

स्त्री-प्रश्न -
१) समाज में ऐसा कुछ अन्तर्निहित है जो स्त्री-पुरूष में भेदभाव करता है. ये अन्तर लंबे समय से उपस्थित है और संस्थागत/व्यवस्थागत हो चुकने के कारण भविष्य में भी बना रह सकता है. इस अन्तर को समझना, मुख्यत: उस रूप में जिसमे नारी एक दोयम दर्जे का नागरिक जीवन जीती है, अत्यावश्यक है. बदलते सामजिक/आर्थिक/राजनीतिक परिवेश में इसे समझना एक स्थूल दिशा निर्देश है.
२) किसी भी मुद्दे की तरह, स्त्री-प्रश्न को सोचने समझने में कुछ ज़ाहिर बातें आड़े आ सकती हैं और हमारे दृष्टिकोण को प्रभावित कर सकती हैं. ये देखना दिलचस्प होगा की इन लैंगिक, सामजिक, आर्थिक, राष्ट्रीय आदि मोडों से होते हुए स्त्री-प्रश्न पर तार्किक रूप से कैसे सोचा जा सकता है.

चर्चा जारी रहेगी...

बुधवार, 4 फ़रवरी 2009

रिक्शा-रिसर्चा-चर्चा भाग-१

आज आखिर अपने निक्कमेपन को गाली देते हुए, नाश्ता ख़ुद लाने की सोची और बड़े भाई से मोटर साइकिल की चाबी मांग ली! कार और बाइक में लॉजिक तो एक ही काम करता है!

"वैसे तो तू चला ही लेता है. मगर जब तक किसी चीज़ को बार-बार इस्तेमाल ही नही करेगा तो आउट ऑफ़ टच हो ही जाएगा. ये ले मेरा लाईसेन्स और बाइक की आर. सी. वैसे भी लाइसेंस की फोटो से कुछ पता नहीं चलता. मगर ध्यान रखियो. किसी को ठोक मत दियो."

"अबे रेस तो दे थोडी. गेयर डाल के खडा हो गया. ले फ़िर बंद हो गई! भाई तेरा तो भगवान् ही मालिक है!"

और सच में भगवान् ही मालिक था हुज़ूर. पिछले कुछ दिनों से कार चलाना सीख रहा हूँ. होते तो दोनों में ही कलच, ब्रेक और अक्सलेरटर हैं, मगर अलग अलग जगह!
विश्वविद्यालय मेट्रो-स्टेशन घर से १०० मीटर की दूरी पर है. यहाँ बीस रिक्शा उस जगह खड़े होते है, जहाँ बस को रुकना चाहिए. इसी जगह एक रिक्शा वाले ने सवारी बिठा के रिक्शा मोड़ी. मैं उस समय कलच, ब्रेक, एक्सीलेटर पर गंभीर चिंतन करता हुआ सड़क के कुछ ज्यादा ही बाएँ आ गया था और जब तक ब्रेक लगाता बाईक रिक्शा के अगले पहिएं को चूम चुकी थी. मैंने, ख़ुद को सड़क पर घिसटते हुए महसूस किया. हेलमेट ढंग से बाँधा था और पीछे से ट्रैफिक नहीं आ रहा था सो कल के अखबारों की रियल पेज थ्री ख़बर बनने से रह गया. पीछे से बड़े भाई, जो की कैंडी को घुमाने निकले थे, भागते हुए आए. तब तक मेरा ये वहम की मेरी पसलियां टूट चुकी हैं उड़ चुका था. मगर ये जरूर लग रहा था की जांघ शायद थोडी छिल गई है.

लोग इक्कठे तो हो ही गए थे. कुछ ने रिक्शा वालों की पूरी कॉम को हो गाली दी. कालोनी के एक लडके ने सम्बंधित रिक्शा वाले को पकड़ के थाने में बंद करने का प्रस्ताव दिया.

भाई ने बाईक संभाली और मुझे-तो-पहले-से-पता-था वाली नज़रों से देखते हुए कैंडी का पट्टा थमा दिया.
"थोड़ा घुमा के घर ले जा."
और वो नाश्ता लेने चला गया.

वापिस आते आते मैंने देखा की वो रिक्शा वाला रिक्शा को ठेलते हुए, क्योंकि अगला पहियाँ क्षतिग्रस्त हो गया था, ले जा रहा था. किसी मेकेनिक के पास ही ले जा रहा होगा. मुझे ख्याल आया की इस की आज की कमाई तो अब क्या होगी बल्कि पहियाँ ठीक कराने में पैसे और लगेंगे. मैंने यूँ ही बड़प्पन में आकर उससे कहा " यार थोड़ा आगे पीछे देख कर मोड़ा करो".

"साहिब! मै तो संभाल के ही मोड़ रहा था. आप ही न जाने कहाँ से आ गये."

कहानी ख़त्म! पैसा हजम!

अब थोड़ा चिंतन-
१) दिल्ली में रिक्शा हैं और बहुत हैं.
२) रिक्शा में आप १० रुपये में १-२ किलोमीटर का सफर तय कर सकते हैं. औटो-रिक्शा वाला १० रुपए के लिए आपको नहीं बिठाता.
३) दिल्ली की कुछ संकरी गलियों के लिए ये रिक्शा ही मुफीद हैं.
४) रिक्शा से प्रदुषण नहीं होता.
५) रिक्शा चालक गरीब/बहुत गरीब हैं और, मेरी तथा शायद आपकी तरह भी, दिल्ली के जन्मजात बाशिंदे नहीं हैं.
६) दिल्ली मेट्रो के स्टेशनों पर रिक्शा बहुतायत में हैं. मेट्रो की फीडर बसों के बावजूद ये मेट्रो को महत्त्वपूर्ण तरीके से फीड कर रहे हैं.

जारी रहेगी...

मंगलवार, 3 फ़रवरी 2009

फरवरी ३, २००९

Degrees Without Freedom? पढ़नी पड़ रही है! दरअसल शोध बिजनौर से बड़े शहरों में श्रम प्रवासन (labor migration) पर आधारित है. आजकल सर्वे-प्रश्नावली पर चर्चा चल रही है. डॉ. वेगेर्ड इवेर्सेन (प्रोजेक्ट के सर्वेसर्वा) के अनुसार, बिजनौर को समझने में ये किताब काफ़ी लाभकारी सिद्ध होगी. मैं अभी पहला अध्याय भी पूरा नही पढ़ पाया हूँ, मगर किताब की शुरुआत बड़ी धमाकेदार और दमदार है. उम्मीद है आने वाले समय में इसकी और चर्चा कर सकूंगा.

आज ये भी तय हुआ की इस रविवार को हम बिजनौर के लिए निकल रहे हैं, और शायद अगले १० दिन वहां आंकड़े इक्कठे करने में बीतेंगे. फ़िर ३-४ दिन का दिल्ली प्रवास. अगले दो महीनों यही कार्यक्रम चलेगा.

एम. फिल. के बारे में अभी भी बहुत सोचना है. कल!

राहुल ने कहा था की १०-१४ के बीच में आएगा. उससे बात करनी होगी. पुणे में उसके साथ खूब छनी थी!

शुक्रवार और शनिवार छुट्टी है (बिजनौर जाने से पहले का सुख).

आर.अनुराधा जी अशोक भाई को बता रही थी की चोखेर-बाली को लेकर कुछ कार्यक्रम शुक्रवार को कला-संकाय में है. क्या है, कब है, कहाँ है? दुबारा पूछना पड़ेगा.

सोमवार, 2 फ़रवरी 2009

गरीबी-विमर्श-१

मौसम के थोड़ा
उपर नीचे होने पर
१० मिनट बात कर सकने वाला मैं
शीतलहर और लू से मरने वालों
(वो जहाँ कहीं भी हैं)
पर कहाँ सोच पाता हूँ!