रविवार, 30 अगस्त 2015
गुरुवार, 26 अगस्त 2010
शेक्स्पेअर "द उल्लू का पट्ठा"
तू पूछती है कैसे कोई नाम जुड़ सा जाता है जिंदगी से
वो रंग जिससे नज़र न हटे
वो खुशबू जो अब जिस्म से ही निकले
ऐसे ही तेरा नाम
मैं बार बार सुनना चाहूँ
अपनी ही ज़बान से
कैसे कोई नाम घुल सा जाता है ज़िन्दगी में
वो रंग जिससे नज़र न हटे
वो खुशबू जो अब जिस्म से ही निकले
ऐसे ही तेरा नाम
मैं बार बार सुनना चाहूँ
अपनी ही ज़बान से
कैसे कोई नाम घुल सा जाता है ज़िन्दगी में
बुधवार, 30 सितंबर 2009
अथ श्री पीएचडी कथा! और क्या वाकई सबसे बड़ा रुपय्या!
आजकल, अपनी प्रसन्नता के बारे में आप क्या कहना चाहेंगे?
१) बहुत खुश
२) सामान्यत: खुश
३) नाखुश
या फिर १ से १० के स्केल पर आप अपनी प्रसन्नता को कितने अंक देना चाहेंगे?
कुछ इसी तरह के सवाल पूछे जाते हैं subjective well being measure सर्वे में. मेरी भावी रीसर्च कुछ इसी तरह का रुख लेने वाली है. थोडा अर्थशास्त्रीय पहलू ये होगा की में वैश्वीकरण का प्रभाव लोगों की प्रसन्नता पर देखना चाहूंगा. Econometrics, जिसे data विश्लेषण का विज्ञान कहा जा सकता है, का इस्तेमाल भी किया जाएगा. जर्मनी से प्रोफ़ेसर एक्सेल द्रेहेर ने पीएचडी में मेरा सुपर्वाइज़र बनने के लिए हामी भरी है. अभी तो छात्रवृति के पापड भी बेलने हैं. अक्टूबर १३ को GRE की परीक्षा भी देनी है. थोडा समय मिलते ही अपनी रिसर्च की दिशा के बारे में और लिखूंगा. तब तक अमर्त्य सेन और जोसेफ स्तिग्लित्ज़ की इस रिपोर्ट को देखा जा सकता है जो फ्रांसीसी राष्ट्रपति सार्कोजी के आग्रह पर उन्होंने लिखी है.बड़े लोग कहते हैं के "और भी राहतें हैं पैसे की खनक के सिवा"
मंगलवार, 14 जुलाई 2009
सस्ती मौत गरीब की
पहली
(फ़ोटो http://news.in.msn.com/national/article.aspx?cp-documentid=३०७०९९६ से साभार.)
"जेब में पैसे हैं नहीं दारु पियेंगे. और वो भी जब बेन किया हुआ है वहां. और पी लो छुप-छुप के कच्ची सस्ती देसी दारू. 10 रूपए में अच्छी दारु की बूँद भी ना मिले."
"यार वो महंगी अफ्फोर्ड नहीं कर सकते थे."
"अबे तो ये साले अमीरों वालें शौक क्यूँ पालते हैं. इतने का दूध पी लो! सेहत भी बनेगी! "
"जैसे के बियर की जगह तू पी लेता है."
"यार हम लोगों की बात अलग है. इन सब चीज़ों में निगरानी की बड़ी दरकार होती है. मैंने एक बार मजे-मजे में कच्ची ट्राई करने की सोची थी. अब कान पकड़ता हूँ. मगर ये गरीब आई टेल यू!दे आर सो डम्ब! मर गये न थोक में!"
दूसरी
(फ़ोटो http://www.bbc.co.uk/worldservice/assets/images/2009/07/12/090712071647_1metro_466.jpg से साभार)
"क्या इस वर्ल्डक्लास प्रोजेक्ट के पूरा होने में कुछ वर्ल्डक्लास संवेदनशीलता नहीं दिखाई जानी चाहिए."
"दिखाई तो थी यार. फिर मरने वालों और घायलों को पैसा भी दिया जाएगा."
" इतना काफी नहीं है. किसी की तो आपराधिक नज़रंदाजी है. आरोप तय होने चाहिए."
"अबे मजदूरों के लिए इत्ता हो गया, यही काफी है. और क्या जान लेगा सरकार की/समाज की/अपनी/मेरी!
(फ़ोटो http://news.in.msn.com/national/article.aspx?cp-documentid=३०७०९९६ से साभार.)
"जेब में पैसे हैं नहीं दारु पियेंगे. और वो भी जब बेन किया हुआ है वहां. और पी लो छुप-छुप के कच्ची सस्ती देसी दारू. 10 रूपए में अच्छी दारु की बूँद भी ना मिले."
"यार वो महंगी अफ्फोर्ड नहीं कर सकते थे."
"अबे तो ये साले अमीरों वालें शौक क्यूँ पालते हैं. इतने का दूध पी लो! सेहत भी बनेगी! "
"जैसे के बियर की जगह तू पी लेता है."
"यार हम लोगों की बात अलग है. इन सब चीज़ों में निगरानी की बड़ी दरकार होती है. मैंने एक बार मजे-मजे में कच्ची ट्राई करने की सोची थी. अब कान पकड़ता हूँ. मगर ये गरीब आई टेल यू!दे आर सो डम्ब! मर गये न थोक में!"
दूसरी
(फ़ोटो http://www.bbc.co.uk/worldservice/assets/images/2009/07/12/090712071647_1metro_466.jpg से साभार)
"क्या इस वर्ल्डक्लास प्रोजेक्ट के पूरा होने में कुछ वर्ल्डक्लास संवेदनशीलता नहीं दिखाई जानी चाहिए."
"दिखाई तो थी यार. फिर मरने वालों और घायलों को पैसा भी दिया जाएगा."
" इतना काफी नहीं है. किसी की तो आपराधिक नज़रंदाजी है. आरोप तय होने चाहिए."
"अबे मजदूरों के लिए इत्ता हो गया, यही काफी है. और क्या जान लेगा सरकार की/समाज की/अपनी/मेरी!
मंगलवार, 7 जुलाई 2009
रविवार, 28 जून 2009
बिजनौर - रात के तीन चित्र.
भीड़ लगी होती है साब! पीछे चार कुर्सी डाल कर बैठने का भी इंतेज़ाम है. एक बार इडली खा ली थी. पता चला की बिजनौर कुछ ज्यादा ही दूर है मद्रास से!
"दिलजला टाईम्स"- न जाने कितनों के दिल जला पाता होगा!
"यू. पी. हुई हमारी है/ अब दिल्ली की बारी हैं"
"दिलजला टाईम्स"- न जाने कितनों के दिल जला पाता होगा!
"यू. पी. हुई हमारी है/ अब दिल्ली की बारी हैं"
लेबल:
घूमते-फिरते,
डायरी,
यात्रा-वृतान्त,
सफ़रनामा
गुरुवार, 18 जून 2009
जगह मिलने पर साइड दी जायेगी
१) गाड़ी के पीछे-
सपने मत देख, सामने देख!
२) बस के किनारे-
लटक मत, टपक जाएगा!
3) धर्मेन्द्र अपना चिम्पांजी/जट्ट यमला टाइप नृत्य करते हुए, डिम्पल से-
थोडी सी तुम पीना
थोडी मुझे पिलाना
बाकी सारा ज़माना
खस्मा नूं खाना ||
आखिरी सद्विचार, "मयखाना" की बढती लोकप्रियता को समर्पित.
सपने मत देख, सामने देख!
२) बस के किनारे-
लटक मत, टपक जाएगा!
3) धर्मेन्द्र अपना चिम्पांजी/जट्ट यमला टाइप नृत्य करते हुए, डिम्पल से-
थोडी सी तुम पीना
थोडी मुझे पिलाना
बाकी सारा ज़माना
खस्मा नूं खाना ||
आखिरी सद्विचार, "मयखाना" की बढती लोकप्रियता को समर्पित.
सदस्यता लें
संदेश (Atom)