गुरु लोग तो खली के घूसंड से भी दमदार पड़े। हिन्दी प्रदेश से कुछ समय तक दूर रहा, इसलिए स्वभाषा से फिर वैसे सम्बन्ध न हो पाने के बहाने को सस्ते-शेरों ने ऐसा बहा दिया है, कि उसे तिनके का सहारा भी न मिलेगा।
अब क्योंकि अपन ख़ुद को ए-ग्रेड कवि/गीतकार समझते हैं इसलिए शुरूआती ब्लॉग में अपने एक गीत का मुखडा हो जाए-
"धूप चुरा के लाया हूँ, मैं धूप चुरा के लाया हूँ
उस तम को हरने वाले का स्वरुप चुरा कर लाया हूँ|"
धूप तो, कसम अल्ला-गणेश की, हम सोलन, शिमला और कसौली से भी चुरा लायें हैं। पर ये यात्रा-वृत्तांत तो अब कल ही लिखा जाएगा, क्योंकि तशरीफ़ चींख-चींख के कह रही है-
"ये ब्लॉग नही आसां, बस इतना समझ लीजे,
तशरीफ़ टिकाना है और सर को खपाना है|"

तो शिमला के एक गुलाब के साथ "शुभोरात्रि",
ताकि मेरी ढपली जो भी राग बजाये
उससे दिल की धड़कने थम और
पाँव की थिरकने बढ़ जाएँ. आमीन!
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