सौरभ को गाँव कभी पसंद नहीं आता. छुट्टियों में गाँव आना तो और भी बोरिंग है. कुछ है भी यहाँ करने को. शहर में पूरे दिन बिजली आती है. जब मन चाहे टीवी देखो जब मन चाहे कॉमिक्स या कहानियों की किताब पढो. थोडा बहुत क्रिकेट और बाकी समय में दोस्तों के साथ मोनोपोली या डबल्यू . डबल्यू. एफ़. के प्लेयिंग कार्ड्स. छुट्टियों का होमवर्क भी करने का वक़्त मिल जाता है. दिन आराम से गुजरता है. और यहाँ, इस गाँव में तो लगता है बस मच्छर-मक्खी ही खुश रह सकते हैं. वहीँ तो हैं हर तरफ़. न बैठने दें न सोने दें. खाना खाते वक़्त मम्मी पंखा न झलें और अगर रात को मच्छर दानी न लगे तो सौरभ दो दिन में ही बीमार हो जाए. वैसे बीमार होना बुरा भी नहीं है! इस वजह से शहर लौटा जा सकता है!
"बड़े भैया की मौज है! ताऊ जी का लड़का जो उनका हमउम्र है. दोनों पूरे दिन झोट्टा-बुग्गी ( भैंसे को बग्गी में जोड़ कर बनाई गई. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में प्रचलित) को दौड़ाते फिरते हैं. बड़े भैया तो उसे भगाने के लिए कैसी कैसी गाली देते हैं! पापा के आते ही उनकी शिकायत करूंगा. कभी झोट्टे को इतनी तेज़ सांटा (लकड़ी पर लपेटा गया चमडे का चाबुक) मारते हैं और कभी उस के पेट के नीचे लात. बेचारा झोट्टा! उसे दर्द नहीं होता होगा क्या!"
अपने हमउम्र किसी बच्चे से सौरभ की जान-पहचान नहीं है. दादा जी कहते हैं, "पूरे गाँव में ब्राहमणों के गिने चुने घर हैं, और उस में भी हमारी बोंत (आर्थिक स्तर) वाला कोई नहीं हैं. गंदे-संदे लत्ते(कपड़े) और उस से भी गन्दी आदतों वाले बच्चे. और खेलेगा भी क्या! कंचे, गुल्ली-डंडा? पापा मना करते हैं न इन खेलों के लिए. पढ़े लिखे शहरी लाट साहेब क्या ऐसे खेल खेलते हैं. तू घर में ही भाईओं-बहनों के साथ खेला कर."
पापा आयेंगे तो सौरभ अकेले पूरे दिन उनके साथ क्रिकेट खेलेगा.
आज पापा आयेंगे. सौरभ सुबह से ही खुश है. उस ने खुद ही बड़े भैय्या और ताऊ जी के लडके से कहा है की उसे भी खेत पर जाना है. उस पापा को बताना है की उसने गाँव में क्या-क्या देखा और फिर उनसे सवाल भी पूछने हैं. दोनों बड़े भाई उसे टालना चाहते हैं, "बेमतलब में में हमारे कामों में अड़ंगे करेगा." मगर सौरभ को जाना है तो जाना है.
शुक्रवार, 10 अप्रैल 2009
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1 टिप्पणी:
Yaar Suman Saurabh patrika ki yaad dila rahe ho ! badhiya chaloo rakho jee !
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