शनिवार, 30 अगस्त 2008

जाने भी दो यारों

कभी कुछ बातें ऐसी हो जाती हैं कि ऊपर वाले पर यकीं करने का मन करता है, धरती पर सब कुछ उलटा-पुल्टा होने के बाद भी! पिछले शनिवार की बात... एक दोस्त को पोर्टेबल प्ले स्टेशन(पी एस पी) चाहिए था... बन्दा दिल्ली का नही था... और नेहरू प्लेस जैसी अपेक्षाकृत भरोसेमंद जगह पर भी उसे दो नम्बरी सस्ता माल नही मिल पाया! दोस्त आश्चर्यचकित था "यार! ऐसा हो ही नही सकता. हर बड़े शहर में एक ग्रे मार्केट ज़रूर होती है (ग्रे मार्केट बोले तो इलेक्ट्रोनिक्स का दो नम्बरी बाज़ार| सामान ओरिजिनल होगा बाबू साहिब... मगर नो बिल नो गारंटी). उसने ये कहा तो मुझे बहुत समय पहले के एक ज्ञानी पुरूष के वचन याद आए-"बेटा! हर शहर में एक डिस्ट्रिक्ट "रेड लाइट डिस्ट्रिक्ट" होती है". 3 वर्षीय, विडियो गेम्स के चहेते, पी एस पी की खोज में भटकते मेरे मित्र का वर्षों का संचित अनुभव और लगे रहने की प्रवृति रंग लायी और पता चला की पालिका बाज़ार में मनोकामना पूरी हो सकती हैं! मन में पालिका बाज़ार के माल के बारे में तमाम तरह की शंकाओं के बावजूद, हम वहां पहुंचे और लो काम हो गया! मगर मेरे मित्र ने आख़िर तय किया कि माल सीधी तरह से खरीदना ही बेहतर रहेगा (अभी बाज़ार में आया है. बिगड़ा तो कौन ठीक करेगा)| आश्चर्य कि सीधा माल भी कुछ ५०० रूपये सस्ता था| फिर भी उनके पास पैसे कम पड़ रहे थे. खरीद तो नहीं सकते थे मगर दोस्त को संतोष हुआ की ग्रे मार्केट्स का उनका ज्ञान थोड़ा और बढ़ गया है.

तब तक मेरे दिल में पालिका बाजार की इज्ज़त एक ग्राहक हितेषी बाज़ार के रूप में पैठ चुकी थी. मगर लेडीज एंड लेडाज़ जो बात में आपको बताने जा रहा हूँ, वो तो सोने पे सुहागा है और उसे पढ़ने के बाद तो आप भी पालिका बाज़ार मथ्था टेक कर ज़रूर आयेंगे| कम से कम में तो ज़रूर जाऊंगा| और जल्दी-जल्दी जाऊंगा!

हो ये गया की पालिका बाज़ार की एक दूकान पर "जाने भी दो यारों" की डीवीडी मिली| जी हाँ हुज़ूर और चूँकि ये moserbaer वालों की हैं इसलिए ४५ रूपये में। अभी ही पता चला है की यह नेट पर भी है मगर यहाँ विडियो का समय फ़िल्म के पूरे समय से कम भी है और दृश्य भी इतना साफ़ नहीं है



पिछले दो-ढाई सालों से इस फ़िल्म को ढूँढ रहा था. कहीं नहीं दिखी. सोचता था थोडी ऑफ़-बीट तो है ही, कम बिकेगी. moserbaer वाले क्यों निकालेंगे। मगर हम जैसे सस्तों के लिये ये काम उन्होंने कर ही दिया।

चाहता तो में ये था की उस दूकान वाले की झप्पी पा कर उसका मुंह चूम लेता। मगर "उस तरह के शक" को बिला वजह बढ़ावा देते हुए बस उस के संग्रह की हमने भरी-पूरी प्रशंसा की। पता चला के जाने भी दो यारों खूब बिक रही या यूँ कहिये के स्टॉक आते ही ख़त्म हो जाता है| देर करते हुए हमने "...यारों" और एक और फ़िल्म उठाई जो पहले बस एक बार देखी थी और देखते ही दिल में घर कर गई थी। उस फ़िल्म के बारे में बाद में पहले आइये बात करते हैं जाने भी दो यारों की! आख़िर "...यारों में" ऐसा क्या है जो रिलीज़ के पच्चीस साल बाद भी यह खूब खरीदी और देखी जा रही है और लोगों के पर्सनल विडियो कलेक्शन की शोभा बढ़ा रही है!

ख़ुद से शुरू करूं! छुटपन में दूरदर्शन पर हर हफ्ते दिखाई जाती थी| तब तक इसके "cult कॉमेडी" स्तर का ज्ञान नही था। ज्ञान तो छोडिये ये भी नही पता था की मुआ "कल्ट कॉमेडी" होता क्या है| शुरुआत में तीन-चार बार देखकर लगने लगा की फ़िल्म में कुछ ही हिस्से ही हैं जो अपने काम के है| याद था की आख़िर में महाभारत के मंचन वाला सीन है और उसमे जब "शांत गदाधारी भीम, शांत" या ध्रितराष्ट्र (ससुर वर्तनी ठीक नही दिखा रहा इंहा) का कहना - "यह सब क्या हो रहा है" सुनते तो बेसाख्ता हँसी आती थी। मगर अंत काफ़ी झकझोरने वाला था और बाल-सुलभ हृदय व्यवस्था के नग्न सत्य को मानने के लिए तय्यार नहीं था। इसलिए अंत भी देखना बंद कर दिया था। बाद में केबल टीवी के प्रादुर्भाव ने जैसे एक नई दुनिया में भौंचक सा ला खड़ा किया और "...यारों" कहीं पीछे छूट गई।

तो बस बचपन में बार-बार देखे गए १५-२० मिनट के हास्य के सहारे ही यह फ़िल्म याद रही। मगर शायद वो क्षणिक निरर्थक सा लगने वाला हास्य भी इतना विलक्षण और दुर्लभ था की जब भी सबसे बेहतरीन हिन्दी हास्य फिल्मों की बात आती थी तो "...यारों" मुंह से ज़रूर निकलती थी। अब जब "अंदाज़ अपना अपना" कई बार देखी गई और "हेरा-फेरी" तो हाल फिलहाल की है ही, तो ये ज़रूर सोचता था की "...यारों" एक बार फ़िर से, लगके देखनी है।

बहरहाल तो "...यारों" देखी गई। और तब पता चला की इसे "कल्ट कॉमेडी" का स्तर क्यों प्राप्त है। मगर आप इसे कॉमेडी के सांचे में तो बंद कर ही नहीं सकते। यह तो उस समय की व्यवस्था पर एक गहरा व्यंग्य(satire) जिसमे इन्तेहाई समझदार और सभ्य हास्य भरा पड़ा है ताकि लोग गहरी बात पचा लें। गहरी बात- कैसे सत्ता, समाचार और साहूकार की तत्कालीन भ्रष्ट तिकड़ी, सच्चाई पसंद आम आदमी को जीते जी मार देती है।

"...यारों" को याद रखे जाने के अनगिनत कारण है। ऐसे अभिनेता (नसीरुद्दीन, ओमपुरी, पंकज कपूर, सतीश कौशिक, नीना गुप्ता,रवि बासवानी आदि) जिन्होंने आने वाले समय में सार्थक सिनेमा और टेलीविजन पर अपनी श्रेष्टता के झंडे गाड़ दिए, इस फ़िल्म में जैसे "पूत के पाँव पालने में दिखने वाली" कहावत चरितार्थ करते हैं। नसीर,हालांकि इससे पहले "अलबर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है" से जम चुके थे| विधु विनोद चोपडा जो की एक निर्देशक, पट कथा लेखक और निर्माता के रूप में सफलता के शिखर पर हैं , फ़िल्म में निर्माण नियंत्रक थे. वे महाभारत वाले दृश्य में दुशासन के रूप में सधा हुआ अभिनय भी करते हैं। सुधीर मिश्रा ने कहानी और पटकथा लेखन में निर्देशक कुंदन शाह का साथ दिया है।

फ़िल्म का एक भी पक्ष कमजोर नही है| एक भी ऐसी चीज़ नही जो फ़ालतू लगे. फ़िल्म में नाच और गाना नही है. वनराज भाटिया ने परिस्तिथि अनुरूप उम्दा संगीत दिया है| "हम होंगे कामयाब..." गीत नसीर और रवि ने अपने मुश्किल क्षणों में कभी उत्साह और कभी दुःख के साथ गाया है| और आखिरी दृश्य में तो ये गीत हम सब पर गाया गया है-ये बताता हुआ कि व्यवस्था जब सच के ख़िलाफ़ हो जाए और समाज नपुंसक, तो प्रेरणा कटाक्ष में कैसे बदलती है|

और एक बहुत महत्वपूर्ण किरदार था- खबरदार की एडिटर शोभा सिंह का। भक्ति बर्वे ने इसे जिस कुटिलता से निभाया वह सराहनीय है। रॉबर्ट फ्रोस्ट की "... and miles to go before I sleep" उनके ऑफिस में टंगी तब दिखाई जाती है जब वे फ़ोन पर सच की कीमत तय कर रही हैं। ढूंढते-ढूंढते पता चला की एक और क़ाबिल फ़नकार शफी इनामदार उनके पति थे और भक्ति ने और भी कई माध्यमों के द्वारा अपने व्यक्तित्व के रंग दिखाए| बर्वे की मृत्यु २००१ में एक कार दुर्घटना में हुई।

एक बात हैं! कहीं कहीं लगता हैं कि आम आदमी कि बात आम आदमी के मुंह से नही निकलवाई गई| विनोद और सुधीर( नायक), western mannerism लिए हुए हैं| यह कथ्य को एक रूमानी touch देता है मगर विश्वसनीय हकीकत नहीं| देखा आपने! इतनी बेहतरीन फ़िल्म में भी हमने एक कमी बता ही दी|

"...यारों" का पूरा मज़ा उठाने के लिए जिस नफासत की दरकार है, वो शायद आज भी कम ही है। मगर जितनी भी हाथ आए बढ़िया है। तो बस देखिये ये फ़िल्म। क्या कहा? देख चुके हैं। एक बार और।मेरे लिये। और बताएं आपको की कहाँ भोलेपन ने, कहाँ हँसी ने, कहाँ frustration ने, मतलब कहाँ-कहाँ किस-किस भाव ने दिल को छुआ। नहीं बताएंगे! तो-
जाने भी दो यारों।

शुक्रवार, 29 अगस्त 2008

हाँ भई हाँ! आज से शरू हो रहा है दिल्ली पुस्तक मेला!

हम भी जायेंगे प्रगति मैदान| थोड़ा वाइरल से उबर जाएँ! पहली तनख्वाह खीसे में धर के पहुंच जायेंगे किताबों से लपट-झपट करने।
दिलो-दिमाग के साथ-साथ अगर सेहत और जेब भी साथ दे तो पुस्तक मेला ज़्यादा ही खुशगवार हो जाता है! कई सौ किताबों के स्टॉल और लाखों नही तो हजारों बेहतरीन किताबें। बहरहाल, कुछ एक रोचक अनुभव रहें हैं पुस्तक मेलों के| आने वाली पोस्टों में लिख देंगे|

एक आखिरी बात! इस बीच अगर कोई महानुभाव पहले पहुँच कर मज़ा लूट लायें तो थोड़ा यहाँ भी बाँट दे। प्लीज न!

चेतावनी-
जिस किसी ने इस पोस्ट को पढ़ने और पुस्तक मेले घूम चुकने के बाद भी ज्ञान नही बाटा तो उसके अपने करीबी एक-एक करके उसकी सारी किताबें "पार" कर देंगे| और फ़िर कैसे कहोगे-I love books!

मंगलवार, 26 अगस्त 2008

फ़राज़ तुम्हें हर अशआर में जीना होगा-एक बेहतरीन शाइर और इंसान को श्रद्धांजलि|

अभी सिद्धेश्वर का पोस्ट कबाड़खाने में देखा| फ़राज़ नही रहे|

पाँच साल होने को आए हैं, साहित्य अकादेमी ने एक सेमीनार का आयोजन किया था| "कविता के मायने उनके लिए क्या है?" (या ऐसा ही कुछ) विषय पर बोलने और अपनी कविताएँ पढने हिन्दुस्तान की बहुत सी ज़बानों के कवि आए थे| हिन्दी में चंद्रकांत देवताले मुझे याद हैं| विशेष अतिथि थे- अहमद फ़राज़| गोपीचंद नारंग ने उनका परिचय दिया| और फिर जब "फ़राज़" बोलने के लिए उठे तो पता चला की वो "फ़राज़" क्यों थे| सभागार में बैठे हर आदमी का दिल उनकी मुट्ठी में था| तब एक सवाल ख़ुद से पूछा था- मेहदी हसन ने उनकी गज़लें गा कर ख़ुद कितना सुख लूटा होगा? सरल भाषा में दिल को छू लेने वाली बात कर जाना उनकी खासियत थी|

उस दिन मैं उनसे मिला नहीं| सेमीनार के बाद सब चाय के लिए सभागार से बाहर निकले| इतने नामचीन शाइर से मिलना तो दूर, घबरा के ये "कॉलेज का लौंडा" मुफ़्त की चाय भी न पी पाया|

ज़्यादा दिन नहीं लगे जब मैं लोगों से ख़ुद ही कहने लगा की मेरे favorite poet फ़राज़ हैं| सुबह यूनिवर्सिटी के मैदान के चक्कर काटते हुए यूँही गुनगुना बैठा था -

अभी तो बाद-ऐ-सबा में ठंडक बाकी हैं
अभी है दूर कहर थोड़ी दूर साथ चलो|

सोचा था कभी फ़राज़ से रूबरू हुआ तो माफ़ी मांग कर सुना दूँगा| वो इधर उस सेमीनार के बाद भी आए पर मैं ही कभी मिलने न जा पाया| ये हूक मुझे सालती रहेगी| मगर इस पोस्ट को पढ़ने वालों से बस एक दरख्वास्त करूंगा के एक बार अहमद फ़राज़ को नेट पर खोज लीजियेगा| मैंने तो सिर्फ़ उनका नाम लिया है| उनकी गजलें, नज़्मे, उनकी तस्वीरें, उनके विडीयो- चहुँ ओर हैं| वो अपने चाहने वालों के दिल में "फ़राज़" पर हैं| हमेशा रहेंगे|

मंगलवार, 19 अगस्त 2008

ये करें हिन्दी की सेवा, मुझे-तुझे मेवा ही मेवा!

हिन्दी में ब्लोगिंग शुरू करने का प्रोत्साहन मुझे इन्टरनेट पर फैले हिन्दी के विशाल साम्राज्य ने ही दिया था| इस ज्ञान-गंगा के एक अमूल्य मोती से आपको मिलाने का लोभ-संवरण नही कर पाया| साईट है- गीता-कविता| एक बार इस साईट में कूदे तो यकीं मानिये, फिर मन चाहेगा की इस साहित्यिक-धार्मिक-आध्यात्मिक-बौद्धिक सागर में ही डूबे रहें|

आपको इस साईट की और खींचने के लिए एक दाना और! साईट के रचनाकार- राजीव कृष्ण सक्सेना हिन्दी साहित्य की शान "धर्मवीर भारती जी" के भांजे हैं| हिन्दी के प्रति ऐसा समर्पण और प्रेम...कम लिखे को ज़्यादा समझें क्योंकि मेरा और कुछ कहना सूरज को दीप दिखाने के समान होगा| इतना ही कहूँगा की २४ केरेट सोना है, लपक लो|

शनिवार, 16 अगस्त 2008

कुछ सस्ता हो जाए

लड़का-
लफ्ज़ भी तेरे, सुर भी तेरे,
कोई ग़ज़ल सुनाऊं क्या?

लड़की-
हाथ ये मेरा, गाल ये तेरा,
कान के नीचे बजाऊँ क्या?

गुरुवार, 14 अगस्त 2008

गीत- बादलों पर, बावलों के लिए!

दिल्ली में लौटता सावन जम के बरस रहा है| तीन साल पहले बारिश के इसी मौसम में एक गीत लिखा था| नीरज और मेरे एक हमनाम ने छपने की प्रेरणा दी| गीत समर्पित है-बादलों और बावलों को-

छाए बदरा छाए आज
फिर भी ना आए सरताज|
तजि के सारे अपने काज
बैठी हूँ लिए हिये-साज|

छाए बदरा छाए आज
फिर भी ...|

कारी कोयल करती कूक
मेरे उर में उठे है हूक|
कैसी नैनों की ये भूख
बस बढ़ती ही जाए आज||

छाए बदरा छाए आज
फिर भी ...|

मेरी छोटी सी थी भूल
मैं चरणों की थारी धूल|
कब तक बीन्धेंगे शूल
बोलों गीतों की आवाज़
मेरे गीतों की आवाज़||

छाए बदरा छाए आज
फिर भी ...|

सोमवार, 11 अगस्त 2008

बिलोगिये इरफ़ान

ये मेरी दिली इच्छा है की हिन्दी-ब्लॉग जगत के धुरंधरों का ज़िक्र होता रहे| ऐसे ही एक धुरंधर हैं-इरफ़ान| इनके ब्लोगों को पढ़ कर सीना डेढ़ इंच चौड़ा हो जाता हैं| ज़िन्दगी को सच्चे माने में celebrate करने का हौंसला देते हैं इनके ब्लॉग| और सोने पर सुहागा ये की ज़बान भी अपनी है! बाकी तो आप जैसे रसिक ढूँढ-ढूँढ कर पता लगा लेंगे- भारत की खोज में टूटते-बिखरते से सस्ते शेर|

एक ग़ज़ल सस्ती सी!

हम भी हो गए सस्ते शेरों के शैदाई,
और inspired हो के ये सस्ती गज़ल बनाई
(याद रखना मेरे भाई,
हमने अपना पुराना गीत छापने की प्रोमिस temporarily दी है भुलाई) -

शेर है मेरा सबसे सस्ता|
है लेकिन ये एकदम खस्ता||

इसकी ही है चर्चा हरसू|
गली-गली औ' रस्ता-रस्ता||

टूटा हैं यह कसता-कसता|
उजड़ गया है बसता-बसता||

उसकी किस्मत-मेरा क्या है|
निकला है वो फँसता-फँसता||

दुनिया क्यों है रोती रहती|
जग है फ़ानी-जोगी हंसता||

शुक्रवार, 8 अगस्त 2008

राग घुमक्कड़ी

अपन तो अभी शुरू ही कर रहे हैं, मगर एक जमे-जमाये घुमक्कड़ हैं- मुनीश ये और क्या-क्या हेंगे, जे तो आप पता लगा ही लेंगे। फिलहाल ध्यानाकर्षण करना चाहूँगा अपनी ढपली से निकले ताजा राग की ओर| पेशे नज़र हैं- राग घुमक्कड़ी!। सोलन, शिमला और कसौली में ये राग जम के गाया गया।

सफर
शुरू होता हैं सोलन से। हमारा स्वागत करने आ पहुंचे एक झक्कास मुकुट पहिने चचा सूरज! कसम से! क्या लग रेले हैं-


शिमला में पारम्परिक नाश्ता " सीडडु" (ड को द्वित्व समझें)-

सोयाबीन
, अखरोट और खसखस को आटे में भर कर भाप में पकाया गया हैं. परोसते हुए, गरमागरम सिडडु को काट कर ऊपर से देसी घी डाला जाता है। हरी चटनी के साथ परोसा गया सिडडु लज़ीज़ है- कम मसालों के साथ।




और साथ साथ मज़ा उठाया जा रहा है प्रकृति के शबाब का।
हल्की बूंदा-बंदी ने है पारभासी हिजाब उढा दिया है पहाडों
कोफिर बुतों पर नज़र कब तक टिके ( वैसे शिमला
के
मॉल रोड पर शनिवार पर धूप उस तरह भी खूब चुराई गई)।




नीचे वाले फोटो में जीभ
यूँ
ही बाहर गई है

अब कारवाँ बढ़ता हैं कसौली की तरफ़| सुन चुके थे की बड़ी शांत और साफ़-सुथरी जगह हैं- cantonment क्षेत्र होने क्र कारण| पर यहाँ आने की हूक उठी थी एक ही वजह से- रात्रि स्मरणीय(विशेषकर scotch के साथ), हिन्दुस्तान के अज़ीमो-शान अफसाना निगार जनाब खुशवंत सिंह ने कसौली स्थित राज विला में, जो की के.एस. की सास के नाम पर हैं, रहकर ही अपनी कुछ भूलने वाली रचनाएँ लिखी हैं| ये ज़िक्र किया हैं उनके लख्ते-जिगर राहुल सिंह ने "In the name of father" में जो की के. एस. की जीवनी हैं| वैसे तो अपने लेखों में भी कसौली का कई बार ज़िक्र के.एस. करते हैं|

अपन राज विला के बगीचे में घूम रहे थे, और ये सोच
रहे थे की लगे हाथों - अन्दर भी हो ही आयें| तभी घर
के रखवालों ने, जो अब तक दरो-दीवार के अन्दर ही
थे, जैसे वहीं से हमारे ख्यालों को भांप लिया| अल्लाह
के उन नेक बन्दों ने बाहर निकलकर समझाया की राज
विला के खूंखार कुत्ते हम जैसे कम-अक्लों लिए ही दो
दिन से उपवास पे हैं| अपन ने डिजिकैम से उनकी
तस्वीर खेंच ज़रा चमकाने की कोशिश की मगर ढाक
के तीन पात (तस्वीर रखवालों की, कुत्तों की नही)-

ये पता ज़रूर लगा की प्यारे के. एस. गर्मियों की शुरुआत(मार्च-अप्रैल) या बरसात(अगस्त-सितम्बर) में ही वहाँ आते हैं|



कसौली जहाँ प्रकृति अपनी पूर्ण कलात्मकता के साथ
किसिम-किसिम के पेड़-पोधों को सींच रहीं हैं और
जहाँ
की आबो-हवा को शीशीओं में भर दुनिया की
सबसे
महंगी खुशबू से ज़्यादा कीमत पर बेंच सकते
हैं| यहाँ गन्दगी फैलाने का "feel good" कराने
के लिए हैं ऐसे कूड़े-दान-











और फिर भी अगर आपको कूड़ा फेलाने की खाज हो तो-








मैंने जितना लिखा वो इन जगहों को शब्दों में उतारने लायक तो बिल्कुल नहीं ही था| फ़िर भी ये खाकसार उम्मीद में बैठा हैं के आप उस तरफ़ निकलें तो अपने नूतन अनुभवों को यहाँ जरूर बाटें या जहाँ बाटें वहाँ का पता ज़रूर दे| अपन लपक लेंगे| और हाँ! धरमपुर के पास(कसौली से सोलन के बीच में), ज्ञानी दे ढाबे के सामने "colonel's kebabs" हैं| वहाँ मलाई-टिक्का और पनीर से भरे मशरूम खूब चटखारे लेकर उडाएं गए हैं|

अगली पोस्ट में अपना एक पुराना गीत पेला जायेगा। तब तक! लगे रहें :)

प्रारम्भ कर रेला हूँ !

शुक्रिया ! सबसे पहले रविश का, जिन्होंने दैनिक हिन्दुस्तान में ब्लॉग-वार्ता के माध्यम से हिन्दी-ब्लॉग जगत में घुसने के लिए उत्साहित किया। यूँ तो कभी कभार, निकलते-बड़ते हिन्दी ब्लोगों पर नज़र पड़ जाती थी पर अपनी जड़ों की तरफ़ लौटाने का काम रविश का ही है।

गुरु लोग तो खली के घूसंड से भी दमदार पड़े। हिन्दी प्रदेश से कुछ समय तक दूर रहा, इसलिए स्वभाषा से फिर वैसे सम्बन्ध न हो पाने के बहाने को सस्ते-शेरों ने ऐसा बहा दिया है, कि उसे तिनके का सहारा भी न मिलेगा।

अब क्योंकि अपन ख़ुद को ए-ग्रेड कवि/गीतकार समझते हैं इसलिए शुरूआती ब्लॉग में अपने एक गीत का मुखडा हो जाए-
"धूप चुरा के लाया हूँ, मैं धूप चुरा के लाया हूँ
उस तम को हरने वाले का स्वरुप चुरा कर लाया हूँ|"

धूप तो, कसम अल्ला-गणेश की, हम सोलन, शिमला और कसौली से भी चुरा लायें हैं। पर ये यात्रा-वृत्तांत तो अब कल ही लिखा जाएगा, क्योंकि तशरीफ़ चींख-चींख के कह रही है-

"ये ब्लॉग नही आसां, बस इतना समझ लीजे,
तशरीफ़ टिकाना है और सर को खपाना है|"

तो शिमला के एक गुलाब के साथ "शुभोरात्रि",
ताकि मेरी ढपली जो भी राग बजाये
उससे दिल की धड़कने थम और
पाँव की थिरकने बढ़ जाएँ. आमीन!