बुधवार, 4 फ़रवरी 2009

रिक्शा-रिसर्चा-चर्चा भाग-१

आज आखिर अपने निक्कमेपन को गाली देते हुए, नाश्ता ख़ुद लाने की सोची और बड़े भाई से मोटर साइकिल की चाबी मांग ली! कार और बाइक में लॉजिक तो एक ही काम करता है!

"वैसे तो तू चला ही लेता है. मगर जब तक किसी चीज़ को बार-बार इस्तेमाल ही नही करेगा तो आउट ऑफ़ टच हो ही जाएगा. ये ले मेरा लाईसेन्स और बाइक की आर. सी. वैसे भी लाइसेंस की फोटो से कुछ पता नहीं चलता. मगर ध्यान रखियो. किसी को ठोक मत दियो."

"अबे रेस तो दे थोडी. गेयर डाल के खडा हो गया. ले फ़िर बंद हो गई! भाई तेरा तो भगवान् ही मालिक है!"

और सच में भगवान् ही मालिक था हुज़ूर. पिछले कुछ दिनों से कार चलाना सीख रहा हूँ. होते तो दोनों में ही कलच, ब्रेक और अक्सलेरटर हैं, मगर अलग अलग जगह!
विश्वविद्यालय मेट्रो-स्टेशन घर से १०० मीटर की दूरी पर है. यहाँ बीस रिक्शा उस जगह खड़े होते है, जहाँ बस को रुकना चाहिए. इसी जगह एक रिक्शा वाले ने सवारी बिठा के रिक्शा मोड़ी. मैं उस समय कलच, ब्रेक, एक्सीलेटर पर गंभीर चिंतन करता हुआ सड़क के कुछ ज्यादा ही बाएँ आ गया था और जब तक ब्रेक लगाता बाईक रिक्शा के अगले पहिएं को चूम चुकी थी. मैंने, ख़ुद को सड़क पर घिसटते हुए महसूस किया. हेलमेट ढंग से बाँधा था और पीछे से ट्रैफिक नहीं आ रहा था सो कल के अखबारों की रियल पेज थ्री ख़बर बनने से रह गया. पीछे से बड़े भाई, जो की कैंडी को घुमाने निकले थे, भागते हुए आए. तब तक मेरा ये वहम की मेरी पसलियां टूट चुकी हैं उड़ चुका था. मगर ये जरूर लग रहा था की जांघ शायद थोडी छिल गई है.

लोग इक्कठे तो हो ही गए थे. कुछ ने रिक्शा वालों की पूरी कॉम को हो गाली दी. कालोनी के एक लडके ने सम्बंधित रिक्शा वाले को पकड़ के थाने में बंद करने का प्रस्ताव दिया.

भाई ने बाईक संभाली और मुझे-तो-पहले-से-पता-था वाली नज़रों से देखते हुए कैंडी का पट्टा थमा दिया.
"थोड़ा घुमा के घर ले जा."
और वो नाश्ता लेने चला गया.

वापिस आते आते मैंने देखा की वो रिक्शा वाला रिक्शा को ठेलते हुए, क्योंकि अगला पहियाँ क्षतिग्रस्त हो गया था, ले जा रहा था. किसी मेकेनिक के पास ही ले जा रहा होगा. मुझे ख्याल आया की इस की आज की कमाई तो अब क्या होगी बल्कि पहियाँ ठीक कराने में पैसे और लगेंगे. मैंने यूँ ही बड़प्पन में आकर उससे कहा " यार थोड़ा आगे पीछे देख कर मोड़ा करो".

"साहिब! मै तो संभाल के ही मोड़ रहा था. आप ही न जाने कहाँ से आ गये."

कहानी ख़त्म! पैसा हजम!

अब थोड़ा चिंतन-
१) दिल्ली में रिक्शा हैं और बहुत हैं.
२) रिक्शा में आप १० रुपये में १-२ किलोमीटर का सफर तय कर सकते हैं. औटो-रिक्शा वाला १० रुपए के लिए आपको नहीं बिठाता.
३) दिल्ली की कुछ संकरी गलियों के लिए ये रिक्शा ही मुफीद हैं.
४) रिक्शा से प्रदुषण नहीं होता.
५) रिक्शा चालक गरीब/बहुत गरीब हैं और, मेरी तथा शायद आपकी तरह भी, दिल्ली के जन्मजात बाशिंदे नहीं हैं.
६) दिल्ली मेट्रो के स्टेशनों पर रिक्शा बहुतायत में हैं. मेट्रो की फीडर बसों के बावजूद ये मेट्रो को महत्त्वपूर्ण तरीके से फीड कर रहे हैं.

जारी रहेगी...

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