गुरुवार, 14 अगस्त 2008

गीत- बादलों पर, बावलों के लिए!

दिल्ली में लौटता सावन जम के बरस रहा है| तीन साल पहले बारिश के इसी मौसम में एक गीत लिखा था| नीरज और मेरे एक हमनाम ने छपने की प्रेरणा दी| गीत समर्पित है-बादलों और बावलों को-

छाए बदरा छाए आज
फिर भी ना आए सरताज|
तजि के सारे अपने काज
बैठी हूँ लिए हिये-साज|

छाए बदरा छाए आज
फिर भी ...|

कारी कोयल करती कूक
मेरे उर में उठे है हूक|
कैसी नैनों की ये भूख
बस बढ़ती ही जाए आज||

छाए बदरा छाए आज
फिर भी ...|

मेरी छोटी सी थी भूल
मैं चरणों की थारी धूल|
कब तक बीन्धेंगे शूल
बोलों गीतों की आवाज़
मेरे गीतों की आवाज़||

छाए बदरा छाए आज
फिर भी ...|

कोई टिप्पणी नहीं: