शनिवार, 30 अगस्त 2008

जाने भी दो यारों

कभी कुछ बातें ऐसी हो जाती हैं कि ऊपर वाले पर यकीं करने का मन करता है, धरती पर सब कुछ उलटा-पुल्टा होने के बाद भी! पिछले शनिवार की बात... एक दोस्त को पोर्टेबल प्ले स्टेशन(पी एस पी) चाहिए था... बन्दा दिल्ली का नही था... और नेहरू प्लेस जैसी अपेक्षाकृत भरोसेमंद जगह पर भी उसे दो नम्बरी सस्ता माल नही मिल पाया! दोस्त आश्चर्यचकित था "यार! ऐसा हो ही नही सकता. हर बड़े शहर में एक ग्रे मार्केट ज़रूर होती है (ग्रे मार्केट बोले तो इलेक्ट्रोनिक्स का दो नम्बरी बाज़ार| सामान ओरिजिनल होगा बाबू साहिब... मगर नो बिल नो गारंटी). उसने ये कहा तो मुझे बहुत समय पहले के एक ज्ञानी पुरूष के वचन याद आए-"बेटा! हर शहर में एक डिस्ट्रिक्ट "रेड लाइट डिस्ट्रिक्ट" होती है". 3 वर्षीय, विडियो गेम्स के चहेते, पी एस पी की खोज में भटकते मेरे मित्र का वर्षों का संचित अनुभव और लगे रहने की प्रवृति रंग लायी और पता चला की पालिका बाज़ार में मनोकामना पूरी हो सकती हैं! मन में पालिका बाज़ार के माल के बारे में तमाम तरह की शंकाओं के बावजूद, हम वहां पहुंचे और लो काम हो गया! मगर मेरे मित्र ने आख़िर तय किया कि माल सीधी तरह से खरीदना ही बेहतर रहेगा (अभी बाज़ार में आया है. बिगड़ा तो कौन ठीक करेगा)| आश्चर्य कि सीधा माल भी कुछ ५०० रूपये सस्ता था| फिर भी उनके पास पैसे कम पड़ रहे थे. खरीद तो नहीं सकते थे मगर दोस्त को संतोष हुआ की ग्रे मार्केट्स का उनका ज्ञान थोड़ा और बढ़ गया है.

तब तक मेरे दिल में पालिका बाजार की इज्ज़त एक ग्राहक हितेषी बाज़ार के रूप में पैठ चुकी थी. मगर लेडीज एंड लेडाज़ जो बात में आपको बताने जा रहा हूँ, वो तो सोने पे सुहागा है और उसे पढ़ने के बाद तो आप भी पालिका बाज़ार मथ्था टेक कर ज़रूर आयेंगे| कम से कम में तो ज़रूर जाऊंगा| और जल्दी-जल्दी जाऊंगा!

हो ये गया की पालिका बाज़ार की एक दूकान पर "जाने भी दो यारों" की डीवीडी मिली| जी हाँ हुज़ूर और चूँकि ये moserbaer वालों की हैं इसलिए ४५ रूपये में। अभी ही पता चला है की यह नेट पर भी है मगर यहाँ विडियो का समय फ़िल्म के पूरे समय से कम भी है और दृश्य भी इतना साफ़ नहीं है



पिछले दो-ढाई सालों से इस फ़िल्म को ढूँढ रहा था. कहीं नहीं दिखी. सोचता था थोडी ऑफ़-बीट तो है ही, कम बिकेगी. moserbaer वाले क्यों निकालेंगे। मगर हम जैसे सस्तों के लिये ये काम उन्होंने कर ही दिया।

चाहता तो में ये था की उस दूकान वाले की झप्पी पा कर उसका मुंह चूम लेता। मगर "उस तरह के शक" को बिला वजह बढ़ावा देते हुए बस उस के संग्रह की हमने भरी-पूरी प्रशंसा की। पता चला के जाने भी दो यारों खूब बिक रही या यूँ कहिये के स्टॉक आते ही ख़त्म हो जाता है| देर करते हुए हमने "...यारों" और एक और फ़िल्म उठाई जो पहले बस एक बार देखी थी और देखते ही दिल में घर कर गई थी। उस फ़िल्म के बारे में बाद में पहले आइये बात करते हैं जाने भी दो यारों की! आख़िर "...यारों में" ऐसा क्या है जो रिलीज़ के पच्चीस साल बाद भी यह खूब खरीदी और देखी जा रही है और लोगों के पर्सनल विडियो कलेक्शन की शोभा बढ़ा रही है!

ख़ुद से शुरू करूं! छुटपन में दूरदर्शन पर हर हफ्ते दिखाई जाती थी| तब तक इसके "cult कॉमेडी" स्तर का ज्ञान नही था। ज्ञान तो छोडिये ये भी नही पता था की मुआ "कल्ट कॉमेडी" होता क्या है| शुरुआत में तीन-चार बार देखकर लगने लगा की फ़िल्म में कुछ ही हिस्से ही हैं जो अपने काम के है| याद था की आख़िर में महाभारत के मंचन वाला सीन है और उसमे जब "शांत गदाधारी भीम, शांत" या ध्रितराष्ट्र (ससुर वर्तनी ठीक नही दिखा रहा इंहा) का कहना - "यह सब क्या हो रहा है" सुनते तो बेसाख्ता हँसी आती थी। मगर अंत काफ़ी झकझोरने वाला था और बाल-सुलभ हृदय व्यवस्था के नग्न सत्य को मानने के लिए तय्यार नहीं था। इसलिए अंत भी देखना बंद कर दिया था। बाद में केबल टीवी के प्रादुर्भाव ने जैसे एक नई दुनिया में भौंचक सा ला खड़ा किया और "...यारों" कहीं पीछे छूट गई।

तो बस बचपन में बार-बार देखे गए १५-२० मिनट के हास्य के सहारे ही यह फ़िल्म याद रही। मगर शायद वो क्षणिक निरर्थक सा लगने वाला हास्य भी इतना विलक्षण और दुर्लभ था की जब भी सबसे बेहतरीन हिन्दी हास्य फिल्मों की बात आती थी तो "...यारों" मुंह से ज़रूर निकलती थी। अब जब "अंदाज़ अपना अपना" कई बार देखी गई और "हेरा-फेरी" तो हाल फिलहाल की है ही, तो ये ज़रूर सोचता था की "...यारों" एक बार फ़िर से, लगके देखनी है।

बहरहाल तो "...यारों" देखी गई। और तब पता चला की इसे "कल्ट कॉमेडी" का स्तर क्यों प्राप्त है। मगर आप इसे कॉमेडी के सांचे में तो बंद कर ही नहीं सकते। यह तो उस समय की व्यवस्था पर एक गहरा व्यंग्य(satire) जिसमे इन्तेहाई समझदार और सभ्य हास्य भरा पड़ा है ताकि लोग गहरी बात पचा लें। गहरी बात- कैसे सत्ता, समाचार और साहूकार की तत्कालीन भ्रष्ट तिकड़ी, सच्चाई पसंद आम आदमी को जीते जी मार देती है।

"...यारों" को याद रखे जाने के अनगिनत कारण है। ऐसे अभिनेता (नसीरुद्दीन, ओमपुरी, पंकज कपूर, सतीश कौशिक, नीना गुप्ता,रवि बासवानी आदि) जिन्होंने आने वाले समय में सार्थक सिनेमा और टेलीविजन पर अपनी श्रेष्टता के झंडे गाड़ दिए, इस फ़िल्म में जैसे "पूत के पाँव पालने में दिखने वाली" कहावत चरितार्थ करते हैं। नसीर,हालांकि इससे पहले "अलबर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है" से जम चुके थे| विधु विनोद चोपडा जो की एक निर्देशक, पट कथा लेखक और निर्माता के रूप में सफलता के शिखर पर हैं , फ़िल्म में निर्माण नियंत्रक थे. वे महाभारत वाले दृश्य में दुशासन के रूप में सधा हुआ अभिनय भी करते हैं। सुधीर मिश्रा ने कहानी और पटकथा लेखन में निर्देशक कुंदन शाह का साथ दिया है।

फ़िल्म का एक भी पक्ष कमजोर नही है| एक भी ऐसी चीज़ नही जो फ़ालतू लगे. फ़िल्म में नाच और गाना नही है. वनराज भाटिया ने परिस्तिथि अनुरूप उम्दा संगीत दिया है| "हम होंगे कामयाब..." गीत नसीर और रवि ने अपने मुश्किल क्षणों में कभी उत्साह और कभी दुःख के साथ गाया है| और आखिरी दृश्य में तो ये गीत हम सब पर गाया गया है-ये बताता हुआ कि व्यवस्था जब सच के ख़िलाफ़ हो जाए और समाज नपुंसक, तो प्रेरणा कटाक्ष में कैसे बदलती है|

और एक बहुत महत्वपूर्ण किरदार था- खबरदार की एडिटर शोभा सिंह का। भक्ति बर्वे ने इसे जिस कुटिलता से निभाया वह सराहनीय है। रॉबर्ट फ्रोस्ट की "... and miles to go before I sleep" उनके ऑफिस में टंगी तब दिखाई जाती है जब वे फ़ोन पर सच की कीमत तय कर रही हैं। ढूंढते-ढूंढते पता चला की एक और क़ाबिल फ़नकार शफी इनामदार उनके पति थे और भक्ति ने और भी कई माध्यमों के द्वारा अपने व्यक्तित्व के रंग दिखाए| बर्वे की मृत्यु २००१ में एक कार दुर्घटना में हुई।

एक बात हैं! कहीं कहीं लगता हैं कि आम आदमी कि बात आम आदमी के मुंह से नही निकलवाई गई| विनोद और सुधीर( नायक), western mannerism लिए हुए हैं| यह कथ्य को एक रूमानी touch देता है मगर विश्वसनीय हकीकत नहीं| देखा आपने! इतनी बेहतरीन फ़िल्म में भी हमने एक कमी बता ही दी|

"...यारों" का पूरा मज़ा उठाने के लिए जिस नफासत की दरकार है, वो शायद आज भी कम ही है। मगर जितनी भी हाथ आए बढ़िया है। तो बस देखिये ये फ़िल्म। क्या कहा? देख चुके हैं। एक बार और।मेरे लिये। और बताएं आपको की कहाँ भोलेपन ने, कहाँ हँसी ने, कहाँ frustration ने, मतलब कहाँ-कहाँ किस-किस भाव ने दिल को छुआ। नहीं बताएंगे! तो-
जाने भी दो यारों।

4 टिप्‍पणियां:

महेन ने कहा…

यह फ़िल्म हर जगह हर वक़्त उपलब्ध रहती है मित्र। पहली बार 12-13 साल की उम्र में दूरदर्शन के ज़माने में देखी थी, जब यह रिलीज़ ही हुई थी… शायद '87 की बात है। जहाँ तक ओनलाइन क्वालिटी का सवाल है www.jaman.com पर देखिये। ऐसी क्वालिटी आपको dvd में भी नहीं मिलेगी। यहां कुछ और नायाब मोती भी मिल जाएंगे, जैसे "एक डाक्टर की मौत"।

western mannerism वाली आपकी बात से मैं थोड़ी असहमति रखता हूँ। यह ब्लैक ह्यूमर जिस तरुण-वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है वह हालांकि ठीक-ठीक वह पहली पीढी नहीं है जो आज़ाद भारत में जवान हुए, बल्कि उनके एकदम बाद की पीढी है, तो भी एक ओर यह पीढी पश्चिम से आयातित सभ्यता और और भी बहुत कुछ अपना चुकी थी, जिसमें नया आत्मविश्वास और प्रगति के मानक थे। आपके प्रोटागोनिस्ट ये दो युवक उसी आत्मविश्वास के प्रतीक थे और दोनों बिल्डर और एडीटर प्रगति के मानक। इस आयात में हम उन मूल्यों को नहीं अपना पाए जो पश्चिम ने 18-19वीं शताब्दी में लंबे मजदूर संघर्षों से पाई थी और यहीं पर कहानी में बेइमानी वाला पक्ष उजागर होता है। प्रोटागोनिस्ट इसे पहले तो समझ नहीं पाते क्योंकि वे अपने आसपास के विकास को उसी सहजता से ले रहे हैं जिस सहजता से वे पश्चिम के विकास को समझ पा रहे हैं। (शुरुआत में वे यह नहीं जानते क्या महत्वपूर्ण पक्ष उनसे छूट गया है और अंत तक उसपर विश्वास-अविश्वास भी नहीं कर पाते)।
दूसरी ओर वह वर्ग है जिसकी पहुँच और पैठ पश्चिमी विकसित सभ्यता के हर आयाम तक है इसलिये उन्हें नियमों में छेद और उनसे होने वाले लाभ पता हैं। उन्हें पता है कि इस देश में मशीनरी कैसे हरकत करती है।

विनय (Viney) ने कहा…

प्यारे महेन!

ये शायद मेरा आलस्य/अल्पज्ञान ही रहा होगा जो फ़िल्म देर से मिली! यूँ मैं फिल्मों का शैदाई ज्यादा रहा भी नहीं| इधर कुछ समय से ही ठीक से देखना समझना शुरु किया है| उम्मीद है आपका साथ और ज्ञान मिलता रहेगा|

अजित वडनेरकर ने कहा…

फिल्मों का तो नहीं , मगर सम्प्रेषण कला के तौर पर फिल्म विधा का जबर्दस्त शैदाई हूं सो चुनींदा फिल्में ज़रूर देखता हूं। ...यारों फिल्म का मैं कायल हूं और कई बार देख चुका हूं और हर बार नया ज़ायका मिलता है।
इसे पढ़ते हुए भी मैं अपने बेटे को इसकी बाबत बता रहा हूं। आपने खूब याद दिलाया...यह फिल्म मेरे संग्रह में भी नहीं है। पहली फुर्सत से ही लाता हूं।
शुक्रिया मित्र....

विनय (Viney) ने कहा…

अजीत भाई! आपने मेरे मुंह की बात छीन ली. दृश्य-श्रव्य माध्यमों की जकड़न जबरदस्त संप्रेषण बन ही जाती है. अब "स्लम डॉग मिलियेनेअर" के बहाने "सलाम बॉम्बे" की याद ताज़ा करने का मौसम है.