शुक्रवार, 8 अगस्त 2008

राग घुमक्कड़ी

अपन तो अभी शुरू ही कर रहे हैं, मगर एक जमे-जमाये घुमक्कड़ हैं- मुनीश ये और क्या-क्या हेंगे, जे तो आप पता लगा ही लेंगे। फिलहाल ध्यानाकर्षण करना चाहूँगा अपनी ढपली से निकले ताजा राग की ओर| पेशे नज़र हैं- राग घुमक्कड़ी!। सोलन, शिमला और कसौली में ये राग जम के गाया गया।

सफर
शुरू होता हैं सोलन से। हमारा स्वागत करने आ पहुंचे एक झक्कास मुकुट पहिने चचा सूरज! कसम से! क्या लग रेले हैं-


शिमला में पारम्परिक नाश्ता " सीडडु" (ड को द्वित्व समझें)-

सोयाबीन
, अखरोट और खसखस को आटे में भर कर भाप में पकाया गया हैं. परोसते हुए, गरमागरम सिडडु को काट कर ऊपर से देसी घी डाला जाता है। हरी चटनी के साथ परोसा गया सिडडु लज़ीज़ है- कम मसालों के साथ।




और साथ साथ मज़ा उठाया जा रहा है प्रकृति के शबाब का।
हल्की बूंदा-बंदी ने है पारभासी हिजाब उढा दिया है पहाडों
कोफिर बुतों पर नज़र कब तक टिके ( वैसे शिमला
के
मॉल रोड पर शनिवार पर धूप उस तरह भी खूब चुराई गई)।




नीचे वाले फोटो में जीभ
यूँ
ही बाहर गई है

अब कारवाँ बढ़ता हैं कसौली की तरफ़| सुन चुके थे की बड़ी शांत और साफ़-सुथरी जगह हैं- cantonment क्षेत्र होने क्र कारण| पर यहाँ आने की हूक उठी थी एक ही वजह से- रात्रि स्मरणीय(विशेषकर scotch के साथ), हिन्दुस्तान के अज़ीमो-शान अफसाना निगार जनाब खुशवंत सिंह ने कसौली स्थित राज विला में, जो की के.एस. की सास के नाम पर हैं, रहकर ही अपनी कुछ भूलने वाली रचनाएँ लिखी हैं| ये ज़िक्र किया हैं उनके लख्ते-जिगर राहुल सिंह ने "In the name of father" में जो की के. एस. की जीवनी हैं| वैसे तो अपने लेखों में भी कसौली का कई बार ज़िक्र के.एस. करते हैं|

अपन राज विला के बगीचे में घूम रहे थे, और ये सोच
रहे थे की लगे हाथों - अन्दर भी हो ही आयें| तभी घर
के रखवालों ने, जो अब तक दरो-दीवार के अन्दर ही
थे, जैसे वहीं से हमारे ख्यालों को भांप लिया| अल्लाह
के उन नेक बन्दों ने बाहर निकलकर समझाया की राज
विला के खूंखार कुत्ते हम जैसे कम-अक्लों लिए ही दो
दिन से उपवास पे हैं| अपन ने डिजिकैम से उनकी
तस्वीर खेंच ज़रा चमकाने की कोशिश की मगर ढाक
के तीन पात (तस्वीर रखवालों की, कुत्तों की नही)-

ये पता ज़रूर लगा की प्यारे के. एस. गर्मियों की शुरुआत(मार्च-अप्रैल) या बरसात(अगस्त-सितम्बर) में ही वहाँ आते हैं|



कसौली जहाँ प्रकृति अपनी पूर्ण कलात्मकता के साथ
किसिम-किसिम के पेड़-पोधों को सींच रहीं हैं और
जहाँ
की आबो-हवा को शीशीओं में भर दुनिया की
सबसे
महंगी खुशबू से ज़्यादा कीमत पर बेंच सकते
हैं| यहाँ गन्दगी फैलाने का "feel good" कराने
के लिए हैं ऐसे कूड़े-दान-











और फिर भी अगर आपको कूड़ा फेलाने की खाज हो तो-








मैंने जितना लिखा वो इन जगहों को शब्दों में उतारने लायक तो बिल्कुल नहीं ही था| फ़िर भी ये खाकसार उम्मीद में बैठा हैं के आप उस तरफ़ निकलें तो अपने नूतन अनुभवों को यहाँ जरूर बाटें या जहाँ बाटें वहाँ का पता ज़रूर दे| अपन लपक लेंगे| और हाँ! धरमपुर के पास(कसौली से सोलन के बीच में), ज्ञानी दे ढाबे के सामने "colonel's kebabs" हैं| वहाँ मलाई-टिक्का और पनीर से भरे मशरूम खूब चटखारे लेकर उडाएं गए हैं|

अगली पोस्ट में अपना एक पुराना गीत पेला जायेगा। तब तक! लगे रहें :)